सूक्ष्म अहंकार ... तृषित
सूक्ष्म अहंकार
प्रपंच की कोई क्रिया अहंकार से प्रथक होकर प्रकट नहीं हो पाती ।
निर्द्वन्दी रस भावुक पथिकों के अनुसरण में हम वर्तमान में जितना विपुल भागवती संस्कारों को देख रहे है इतना कभी ना हुआ है । वह जब यहाँ प्रकट भी रहें है तब भी कौरव और जरासन्ध आदि की सेना उनकी अपनी सेनाओं से अधिक रही ।
वर्तमान हम कौरव - रावण - जरासन्ध की सेनाओं में नही है हम सभी रस या धर्म पथ पर स्वयं को देख रहे है जबकि सद्गति तो इन महानुभावों ने भी अर्जित कर ली थी ।
सत-रज-तम तीनों पात्र निर्माण कर ही प्रकट रहते है । अधिकांश साधको को तमोगुण से उतनी हानि नही होती जितनी रजोगुण से होती है । और रजोगुण से अधिक सतगुण से प्रकट दोष से पथिक की हानी अधिक होती है ।
जीव चींटी को भी अन्न का कण देता है तो सेवा रूपी विशेषण को सहन ना करने की वृति ना होने से वह गर्वित हो उठता है जो कि कालान्तर में पथ पर भयंकर संकट अहंकार में बदल जाता है । जैसा कि वर्तमान में बाह्य अनुसरण बहुत है ...श्रीधामों की छोटी संकरी गलियाँ सटी हुई मिलती है। विलास कुन्जों के ...जगमोहन किसी युद्ध धरा से सघन भरे दिखते है ।तब भी कही न कही द्वन्द शेष रह रहा है कारण कि इस निवृति रस को प्रवृति रूप ग्रहण किया जा रहा है ।
अपने द्वारा अर्जित सात्विक उपकारों पर अहंकार या सूक्ष्म अहंकार उन्हें होगा जिनके भीतर अब भी निर्गुण प्रेमावृति प्रकट नहीं हुई है । जो नित्य सेवा प्रेम भजनरस वृतियों में भरे है और इस अहंकार के भय से कभी भी उसका उल्लेख नही कर पाते है वह निश्चित प्रेमी है । अहंकार की छुवन का भय केवल प्रेमी को होता है क्योंकि उन्हें अपने प्राणाधार का प्रभाव ही भीतर भरना होता है । प्राप्त समस्त साधन या रस उन्हें आह्लादित करते हुये भीतर से रसीला करते हुये अंतस को इतना गीला करते जाते है कि *मैं* यह शब्द ही कही दबा होता है और यह तनिक उठने भी लगे तो वह गीलापन जो प्राण रस हो गया है कुरेदने सी पीडा भर देता है और रस उस पर डाल दिया जाता है ।
भक्ति पथ की प्राथमिक कक्षा से छुटकारा जब मिलता है जब दैन्यता को कोई भी पुरस्कार हिला ना सकें । भक्त दैन्य रूपी गीले वस्त्रों से सदा भीगा रहता है और दैन्यता क्षण-क्षण सँग करती है प्राण प्यारे की कृपा वर्षा का ।
अनुग्रह ...आनुगत्य ...अनुसरण यह केवल प्रेमी धारण रखता है । शेष में स्व सिद्धि का घोष निहित रहता है । कुछ दशक वर्ष पूर्व किसी नवयुवती को उसका पति किसी नवदेश लें जावें तो वह उसका हस्त नही छोड पाती थी । वह शहर कितना ही सुंदर हो उसे प्राण प्रियतम का स्पर्श बिना वह सब नारकीय लगता था । ऐसी नवदुल्हिनी उस नवदेश का पृथक् अनुभव भी नही अर्जित कर पाती थी क्योंकि उसके भीतर तो प्रियतम को निकट रखना ही प्राणों में भरा होता था यहाँ वह भ्रमण का सुख केवल प्रेमास्पद सुख वत लेती थी वह भारत का लाज रूपी सहज श्रृंगार काल था जो लाज अब अनुभव में है नही । प्रेमी के अतिरिक्त वह दुल्हन यह चाहती ना थी कि कोई उसका मुख भी निहारें ...कहने को यह सब रुढिवादी बातें लगती रही हमें सो भीतर रस की ओर जा रही वृतियाँ हमनें छोड दी ।
मनुष्य आश्रय के अधीन है वह आश्रय से छुट नही सकता तात्पर्य वह आश्रित है सो नित्य द्रवित दास है । मनुष्य का शिशु आश्रय अभाव में जीवन नही रख सकता जबकि पशुओं को तत्काल चलना फिरना मिल जाता है ।
मनुष्य इस आश्रय को ही भीतर नित्य अनुभव रख लें तब यह आश्रय विषय एक होकर भीतर सँग रहता है ।
अपने द्वारा कृत हो रहे व्यवहारों मे कृपा से हो रही दिव्य घटनाओं में मेरापन अंकित होते ही वह सात्विक गुण होकर प्रकट होती है । जैसे कि मैं सन्त सँग करता हूं अथवा मैं नित्य सत्संग सुनता हूं । जो सँग प्राणों को रस से भरने को मिल रहा है उसमें भी अपना प्रभाव अनुभव करते ही कृपा का प्रभाव अप्रकट होने लगता है जिससे वह दिव्य वस्तु भी अहंकार हो जाती (कृपा का नित्य स्मरण स्व की वास्त्विकता को स्वीकार रखने पर ही होता है) । नित्य लाख नाम जप से भी कृपा अनुभव नही हो रही तो कारण है कि सत्व गुण का स्वाद छोडा नही जा रहा जबकि सत्व से ऊपर विशुद्ध सत्व और उसके ऊपर भाव विराजमान है । भाव प्रेम की धरा पर खिला फूल है और प्रेम की यह धरा सत-रज-तम से अद्भूत रसिली धरा है । गुणों में ममत्व से अहंकार है ...वास्तविक गुण को अपना होना अनुभव नही होता है और गुण की उपस्थिति का होना उपलब्ध होने पर वह दोष में प्रकट हो जाता है । रावण वह ज्ञानी है जिसे अपने ज्ञान का होना अनुभव है सो विपुल अहंकार यहाँ उस विपुल ज्ञान को झेलने हेतू बना हुआ है ।
आज सेल्फी युग है ...हमें आत्म अवलोकन की आवश्यकता है कि क्या वह वस्तु हम में है जिसे प्रकट रखने हेतू सारा खेल चल रहा ...प्रेम में भरी नित्यसेवा दास्यता । अपनी छबि में केवल उनकी वस्तु हमें अनुभव आनी चाहिये तब सेल्फी रूपी आत्मअवलोकन सिद्ध होगा और वह वस्तु ही उसका दर्शन कर सकती है । अर्थात् अपने प्रेम का दर्शन भी अगर मैं करुँ तो वह प्रेम है नहीं क्योंकि प्रेम ही प्रेम को देख सकता है यह होगा सक्रियता-निष्क्रियता सँग आश्रित रहना । ठीक उस नवदुल्हिनी की भाँति जो स्वयं को केवल प्रियतम की ही मान रही है और प्रियतम हेतू ही सँग है ...सचेतन भी प्रियतम हेतू ही है और श्रृंगारित भी है तो मात्र प्रियतम हेतू । जैसे ही वह पृथक् सत्ता या जीवन - रस भोग चाहने हेतू दृष्टि उठायेगी तब भरें प्रपंच में स्वयं को देखेगी । स्वयं को देखने की आवश्यकता प्रेम पथ में तो कही नही है और श्री प्रियतम के नयनों से यहाँ जो श्रृंगार जीवन में प्रकट होता है उसमें पृथक होकर अनुभव की इच्छा ही स्वयं के श्रृंगारों की दर्शन लालसा रूप सात्विक गुणों का सूक्ष्म अहंकार भरा अनुभव है । अपने श्रृंगार(गुण ) का ज्ञान नही उनका अभाव अनुभव ही प्रेम है और उनका होना स्वयं को मिलना ही सत गुण का सिद्ध होना है जो कि पृथकता हेतू ग्रहण किया गया है ।
जिस साधन या भजन को हम उनमें मिल जाने हेतू जीवन में धारण कर रहें हो उसका स्वयंं में प्रकट होना मिलन की इच्छा से छुटना ही है ।
वह गुण-श्रृंगार प्रकट है ही ...उनके अनुभव की और अभिव्यक्ति की आवश्यकता नही हो । चिन्तन करें ...क्या वह नवदुल्हिनी अतिसुंदर नही लग रही परन्तु वह मात्र प्रियतम हेतू सुंदर है स्वयं हेतू भी नही ।
कृपा (उनके प्रेम) का गीत गाता रसिक सन्तों का जीवन किसे अपनी ओर नही खेंचता ।
कृपा का स्वप्न में भी अनुभव ना छुटे तब ही आत्मियता की नित्यता है जो भीतर कदापि पृथकता नही चाहती । प्रेमास्पद श्रीयुगल चरणाश्रय से पृथकता चाहना ही अहम् भाव है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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