स्थिर-संचरण - तृषित
*स्थिर-संचरण*
युगलनिधि हियनिधि रँगश्रृंगारविवर्तनिधि केलिवैदग्धनिधि श्रृंगारनिधि के कुछ यही भाव आस्वादनीय ऋतु मधुऋतु सँग बासन्तीनिधि विलास की तनिक खनक से भरा अग्रिम निधि की निधि श्रीकिशोरी जू का अग्रिम भाव आप सुनेंगे । (उज्ज्वल श्रीप्रियाजू सर्वनिधि प्रकरण में)
यहाँ क्षण-क्षण निधि अनन्त है ...इनका अनवरत सेवा आस्वादन ही कृपा की निधि स्थिति है । संचारी आस्वादन केवल स्थिरआश्रय की लालसा भर है । अर्थात् सम्पूर्ण जीवन भर एक-एक साँस में किशोरीनिधि विलास सुगन्धों की नवीनताओं को वाणी में सेवा दी जावें तब भी वह निधि की बिन्दु भर संचरण होगी ।
रस की मूल स्थिति है ...रस की सघन स्थिरता जैसा कि कभी कभी सरोवर सम्पूर्ण तरंगों को थाम कर यूँ प्रतित हो जैसे थल हो । सघन रसिली मधुवत गुलाल सी गाढ्ता । परन्तु सघन स्थिरता से पूर्व सघन उछाल है ...सघन नृत्य सेवा विलास भी है ।
जीव की गति अति लघु है वह 250किलोमीटर की यात्रा 4घण्टे में कर हर्षित है । पदतली से निभावें तो इसमें कुछ दिन लगेंगे । जैसे कि मेरे सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि सत्य रस होता तो मौन होना होता ...जी ...यहाँ यही मूकता निज रस वस्तु भी है । अर्थात् रस नही है क्योंकि स्थिरता नहीं है तब क्या है ...रसाभास से उछल है । रस तो एकान्तिक वह कालखण्ड है जिससे बाहर भीतर की सुगन्ध ना झरें । स्थिरता की माँग है सम्पूर्ण विलास नृत्य । श्रीयुगल मुर्ति स्थिर भाव से भोग लगा रहे हो जैसे सखी समूह सँग मयूर - हँस -खग - मृग की नृत्य क्रीड़ाओं का । स्थिर श्रीयुगल का श्रृंगार हुलस रहा है और हुलसते श्रीयुगल का श्रृंगार स्थिर है । ...अगर मयूर नृत्य से श्रीयुगल हर्षित है उसी मयूर को रस का प्राकृत पठन करा दिया जावें और वह नृत्य भंग कर स्थिर होना चाह्वे तब उसकी स्थिरता के उल्लास हेतू स्थिरप्राण युगल तरल होने लगेंगे ।
स्थितियों का क्रम श्रीयुगल के उल्लास पर श्रृंगारित हो रहा है । श्रीयुगल की समस्त चंचलताओं को ...ध्वनि आदि संचरण को उनके स्थिर विलास हेतू नित्य अलि वाणी में गाया जा रहा है । शब्द-शून्य स्थिति वस्तुतः नादभरी होनी चाहिये और वेणुनाद भरी उस स्थिति की अनंग ध्वनि को अप्रकट शब्द चाहिये जो कि भीतर ध्वनित तो होते हो परन्तु प्रकट वेणु-माधुरी में हो रहे हो । वेणु माधुरी (नादब्रह्म) के रसीले स्वभाव से अभिन्न स्थिति शब्दशून्य है क्योंकि वह शब्द गलित हो गये है । शब्द की उपस्थिति है जब नीलाभ बाहर हो और नाद रूपी वेणु रस श्री नीलाभ के भीतर भरा है । शब्द आकाश तलाशता है परन्तु समस्त आकाश नीलमणी की नीलिमा की धुंधली विलास कान्ति से विशेष कुछ नहीं है ।
दो शब्द है एक वह जो सूखा है जिसने शब्दशून्य स्थिति रसध्वनि वेणु में गोता नही लगाया है वेणु-माधुरी में शब्दब्रह्म ही गोता लगाता है अर्थात् नाम-लीला-गुणानुवाद । परन्तु एक और शब्द है ...जो है ही नहीं क्योंकि वह गलित होगया है परन्तु भीतर की रसिली नादित लहरों सँग भीतर ही उछल भर रहा है और बाहर ध्वनिआभास झर रहा है । अर्थात् स्थिरता भरी संचरणता जिसमें स्थिरता स्थाई है और संचरण है नही बस आभास है । वह द्वितीय शब्द स्थिति नादब्रह्म (वेणुमाधुरी) में गिली हो कर पिघल रही है । वहाँ कोई ध्वनि है नही परन्तु नाद ब्रह्म अर्थात् वेणु में भरी केलि ध्वनि ही उस गलित शब्द के प्राणों में भरती जा रही है जिससे यदा-कदा झरण छुट जाती है । झरती हुई रस सरिता स्वयं में मौन है परन्तु पथ की चंचलता ही उसकी ध्वनि प्रतित हो रही है ...पथ झील वत गम्भीर हो और श्रृंगार रस नीचे ना छुट रहे हो तब झील झरणा न होगी । झरणा विलासमय जा रहा है कहीं विश्राम तलाशता । विश्राम कहीं जा रहा है विलास तलाशता ।
कभी-कभी मौन इतना सुंदर हो जाता है कि मधुरतम माधुरियों में रँग वह नृत्य हो उठता है । किसी मयूर को शायद ही पता हो कि क्या वह शोर कर रहा है ??? अथवा सहज रस झरण के वशीभूत पंख फैला रहा है ।
जीव की सम्पूर्ण विकास स्थिति जब ही अविद्या का पट हटा कर विलासित होती है जब उसके नयन अभाव की यात्रा से परे महाभाव की माधुरियों में भीगे होते है ।
इस धरती पर झरणों पर कृत्रिम बाँध बनाने की आदत बढ रही है ...कोई साहित्यकार अगर सौंदर्या शिरोमणि मधुर विलासिनी की आलोचना कर हर्षित हो सकता है तब भी इसी धरा पर प्रकट दृश्य हो वह सर्वलोचना नयनों की माधुरियों में विलसते सघन नृत्य वल्लरियों सँग किसी-किसी खग-फूल को सहजता में झूमा भी सकते है । क्या किसी स्थिर योगी ने गिलहरियों के भीतर उछलते संचरित उल्लास को छूकर उसे बाँधने में कोई समर्थता कभी पाई । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम ।
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