आध्यात्मिक खिचड़ी युग - तृषित

*आध्यात्मिक खिचड़ी युग*

आज सभी भावुक या साधकों में सभी पथों की खिचड़ी है क्योंकि अपना पथ हृदय से नही मिला है और बाहर का ही साधन मात्र है जबकि प्रगाढ रसिक वाणियों में रस रीति की भिन्नताओं का रहस्य है । अभिन्न लीला में भी प्रति क्षण अनन्त भिन्नता ही सेवामय है ।
सभी के पथ उनके स्वभाव वत प्रकट होते है ...मिठाई में मिर्च का कोई कमाल नही हो सकता और सभी सब्जियों में गुड़ की आवश्यकता नहीं है । फिर भी बहुत मसालें है और बहुत व्यंजन भी है जबकि जीवन भर चना भी तो चबाया जा सकता है । यह बाह्य विभिन्नताएँ ही भीतर की रस नवीनता प्रकट करने का संकेत भर है ।
आज हम सभी सामुहिक मंचों पर है और अपरिचित शहरों का पता एक दुसरे को बता रहे होते है जबकि अपने हम अपने शहर पूरा ना घुमा है अर्थात् रसरीति में सेवार्थ नवीनता है सभी स्वभावों में क्षणिक निज विशेषता है जैसा कि सभी की हथेली की रेखा भिन्न है ...देह सम होने पर मुखाकृति भिन्न है  ...यहाँ तक की वृक्ष के पत्तों के भीतर की रेखायें भी सभी पत्तों में नई है ।
यह क्षणिक नवीनता जिसे ध्वस्त नही किया जा सकता वह ही स्वभाव है और जैसा स्वभाव है वैसा ही रस रीति पथ हमें गृहण करना चाहिये । जैसा कि किन्हीं रस पथ में नित्य उत्सव है विरहित पथिक को वहाँ यथेष्ट आस्वादन नही मिल सकता और पथ के उल्लास में अगर उसे पीडा(तृषा) का दर्शन ना हो रहा है तब वह विरह स्थिति भी प्राकृत भर ही है ।
सभी सेवाएं अपना विशेष स्वाद रखती है और स्वरूप-स्वभावों की उपासना (श्रीयुगल-उपासना) में अनन्तस्वाद भरी नित्य क्षणार्द्ध में नव रस है । सभी रस परस्पर सँग होकर भी परस्पर रँग रस में विच्छेद नही रखते है । अर्थात् नमक कभी शक्कर को नमक होने का ज्ञान नही देता है और पीला रँग काले रँग के सँग से कालापन ले ही लें तो वह पीला रहेगा नहीं ।
भीतर के पथ पर अपना रस-रँग अनुभव हो अर्थात् स्वभाव-स्वरूप अनुभव हो ...क्योंकि वह ना होने पर हम स्थिर रस नहीं चख सकते । क्या तोते को देख कर ही खरगोश तोता हो जाता है अगर उसमें तोते को देखकर तोता होने की कामना हुई भी तो उसे प्रथम खरगोश का जीवन पूर्ण करना होगा । बाहर के खेल में जीवन अपूर्ण है परन्तु भीतर के पथ में अपना-अपना रस ही पूर्ण है अर्थात्  निज पथ पूर्ण पथ परन्तु उसका यह प्रवचन नही हो सकता कि यही मेरा पथ ही पूर्ण है जो इसे अपनावें वही पहुँच सकता है ...ऐसा नहीं कह सकते ...क्योंकि पूर्ण अनुभव वह है जब रसार्थ क्षणिक क्षणिक नवीनतओं को वह हृदय महत्व दे । बसन्त ऋतुराज है परन्तु वर्षा और शरद का अपना रस है ही ।
भीतर विलास सेवा के खेल में अनन्त रस-रँग मिल कर सेवा कर रहें है सो ही नित्योत्सव है । मान लीजिये आपके निवास पर श्रीयुगल आ गये है और उनके आगमन से उनके सभी प्रेमी भी आ जुटे है और सब अपनी-अपनी सेवाओं भोग आदि सँग आयें है तब यहां सेवाओं की अनन्त नवीनतओं से ही उत्सव है  ...एकान्तिक सेवा विपुल हो गई सो उत्सव है । यह नवीनता भावात्मक भी है सो अनन्त भाव श्रीयुगल आरोगकर सभी को तृप्त कर रहें है । अब यहाँ कोई कह्वे कि कोई एक स्वभाव वृति श्रीयुगल में क्यों नही तो श्रीरसराज सम्पूर्ण रस स्वयं है क्योंकि सर्व भावों की अधिश्वरी श्रीप्रिया उनका निजतम प्राणरस है । नित्य प्रकट अनन्त सहज भावों की ही वह अधिश्वरी है ...आज पथिक अपनी रुढ़िवादिता को अपना भाव समझते है जबकि मूल निज-भाव वह है जिसे किसी जीवन के आने जाने पर भी वह चेतना उस भाव को तज ना सकें अर्थात् वह नकल से या अकल से भीतर नहीं आता है ...वह तो वही स्थाई वास कर रहा होता है । उससे मिलने का उपाय रसरीति पथ का आश्रय ।(नामाश्रय) वास्तविक रसिक का सँग हो उनसे अपनी स्थिति सँग रस रीति हेतू निर्देश गृहण किया जावें ...जो भाव की विभिन्नताओं के पारखी भी हो जिससे पथिक को जीवन भर रस रीति बदलने की आवश्यकता ना हो ...सभी मेरे घर में वास नही कर सकते क्योंकि हमारे यहाँ की जलवायु सबके हेतू नहीं है परन्तु आज अविवेक सँग अपने पथ में अविद्या रूपी कचरा भी भरा जा रहा ...बस अपने यहाँ भीड बढ़ना  ...रसरीति या पथ का प्रचार नही होता। जीवन के रहते रसरीति बदलना वैसा ही है जैसे दाल बनाने हेतू उसे उबालते हुये अधुरा छोड ...कडी पकाना ! और कडी पकाते समय किन्हीं की और किसी सब्जी की सुगन्ध आने से वह भी अधुरी छोड तीसरी सब्जी बनाना ।  यहां कोई एक भोग पूरा नही पक पाता है ।
सो वर्तमान में अगर उपदेश हो कि आपका पथ ही नश्वर है तब यहाँ विवेक की आवश्यकता है । यह सारी बात मैं इसलिये कह रहा हूं कि रसिक वाणी का एक सोपान पढा तो एक ही संवाद में उन्होनें दो पथों की अनुभव में विभिन्नता बताकर उनकी अपनी-अपनी स्वाद रीति को निवेदन किया सो उत्साह हुआ कि यही तो सौंदर्य है ...जबकि उन रसिक मूर्धन्य की इनमें अपनी कोई रीति नहीं तदपि उन रीतियों का आदर है ...इस विभिन्न रीतियों के आदर से भरी वाणी अद्भूत श्रृंगार भरा गुणानुवाद है  श्रीहरि का ।
वर्तमान में हम सभी में अपनी ही रीति के अनुभव का प्रचुर अभाव है ...तब अन्य रीति पथिकों को उपदेश देना अपराध ही है । 
यहाँ जिन्होंने मेरी वाणी को सुना हो वह समझते ही होंगे कि निज-रस रीति का न्युनतम शब्द वहाँ कहा जाता है जबकि वह रस रीति ही वहाँ रस और रँग होकर उछल रही होती है अर्थात् ...मौन एक प्रकार से व्यापक शब्द ही है ।
अब उस उछल को बदला नही जा सकता ..क्या किसी भी कौवे को कुछ दिन कोकिला का सँग करा कर उसकी वाक् शैली को बदला जा सकता है और कौवे के स्वर को भी सघनता सँग सुना जावें तो वह भी अद्भूत ही स्वर है ।
हमारे जीवन की मूल माँग है रसिक-सँग ...और  रसिक सँग केवल पथिक का निज स्वभाव ही प्रकट करता है अगर अपने स्वभाव का विज्ञापन किया जा रहा हो तब वहाँ उसका अपना ही अभाव है क्योंकि स्वभाव के भीतर प्राकृत कोई लोभ नही हो सकता ।
प्रेम में दृष्टि में दोष नही रहता और प्रेमी समक्ष स्वरूप-स्वभावों की भिन्नता प्रकट भी होती है तब वह उनका रस-रँग की नवीनतम सेवाओंवत भीतर आदर रखता है । अनुभव कीजिये अपनी स्वभाव स्थिति का ...किन्हीं योग्य रसिक भावुक सँग परामर्श कीजिये जो कि आपकी स्थिति का आदर रखते हुये आपको रसिक पथ प्रशस्त करें ना कि हम यह मान लें की हमें बाह्य रुचियों अनुरूप आध्यात्मिक बाजारों में टहलना भर है । भीतर बाज़ार किसी पथ को नहीं मिला है ...हाँ भीतर हृदय में स्थिर चित्त में भावरस उद्यान (कुँज) (बाग़) जरुर है जिनमें अपनी अपनी नवीनता है और अनन्त प्रजातियों की फुलवारी भरी हुई है ...सेवार्थ नवीनता । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी।
अपने हृदय (दिल) की सुनिये वह आपको गुमराह नहीं करेगा अगर कुछ वर्ष पथिक होने बाद आपके हृदय से आपका उल्लसित संवाद नही हुआ है तब आप परामर्श लीजिये रसिक-सन्तों से अथवा नाम भजन में और तृषित-प्राण भर लीजिये । हर किरण का सुर्य में अपना घर है । और सभी किरणों की अनिवार्य आवश्यकता है ...क्या कोई  भी किरण गलत गिर रही है ???
ब्रह्म की व्यापकता के आदर से रसरँग की भीतर व्यापकता सघन हो सकती है । श्रीहरिदास । श्रीवृन्दावन ।

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