सौहार्द-झरण , तृषित

*सौहार्द-झरण*

सेवा-निवेश हेतु क्षमता बहने को उन्मत्त है , परन्तु श्रीलाडिलीलाल कृपा कर उसे अनवरत बहने के लिये उत्सवित रखें ...क्योंकि जब किसी प्याऊँ पर कुछ दिन कोई जल पीने नहीं आता तब या तो वह प्याऊँ हटा दी जाती है अथवा कोई नई व्यापारी तकनीकी खोजी जाती है । किसी भी रसझारी (प्याऊँ) ने अगर वह काल देखा हो जब वह रसार्थ सेवित हो और बिना पिलाये मटकियों का जल सूख रहा हो । फिर कुछ काल मे ही वहां अवशेष ही मटकियों के मिलते हो । बिना किसी पिपासु के पिपासा की सेवा बहे यह कठिन है । क्योंकि पिपासु सँग से ही पिपासा का निदान सेवित हो सकता है ।  रक्तदान दाता को भी रक्त ग्रहण करने वाला चाहिये , ना कि वह याचना करता है कि कोई ले लो मेरा रक्त (जीवन रक्षण के लिये जिस भाँति जाति-प्रजाति - संस्कार आदि ना चिंतन कर रक्त ग्रहण किया जाता हो वैसे ही कोई सहज प्रेम रस का रोगी ही तृषित तुझे तृषात्मक पोषण दे सकेगा)। जबकि भाव सम्पूर्ण चेतन शक्ति के प्राण का गहन द्रवीभूत सार रस है , जो कि केवल अप्राकृत ही जीवन में जीवनमय है । प्राकृत प्रकटीकरण में वह सहज उच्छलित नहीं रहता है ...जिस भाँति कागज पर बना सूर्य प्रकाश आदि अपनी वास्तविक सेवा को प्रकट नहीं कर सकता । फिर भी वह सेवार्थ शुष्क दृश्य में एक प्रभा भर सेवित होकर उत्सवित सेवक रहना चाहता है सो वह निज प्रकाश पुंज की कल्पना की समर्थता देना चाहता है ।
हे पथिक , कब सहज आपकी भीगी संकर्षण रस भरित सुहार्द मधुता के सँग में कोई शरदीय रसाश्रु (मोती) अपनी प्रीति विवश कौतुक घटनाओं को क्रीड़ा में पिरोकर उछल सकेगा । कब कोई हृदय में स्वाति की बिन्दु भर सकेगा और उसे जीवन देने का संकल्प ले लेगा ।
पथिकों में जब तक निज स्वभाव स्पष्ट स्पर्शित ना हो , वह किन्हीं भी जीवन भर ग्रहण किये सत्संगों को अनुभव करके भी भावुक का भावार्थ सँग नहीं कर पाते । अथवा अपने शुष्क या अदृश्य भाव वत ही वह भाव रस अनुभवी के भाव को उपस्थिति आदि से तौलते है और भाव तुला की मानसिक संरचना से पूर्व वैसे ही भीतर की गहन कुँजो में उड़ जाता है जैसे सूखे वृक्ष से पक्षी उड़कर रसिले वृक्ष में बैठ जावें अर्थात् श्रद्धालु में भाव मूल्यांकन करने का अनुभव नहीं हो पाता और यही श्रद्धा भाव रूपी द्वार को खोल देती है , शेष सँग केवल पक्ष - विपक्ष हो सकते है जबकि श्रद्धा निज परिजन-परिकर रचती है । 
भाव सिद्ध स्थिति किसी अपराधी में भी महाभाव देख रसपान में भीगी हो सकती है । जिसने प्रेम पाश से नभचरों-वनचरों-जलचरों को आह्लादित कर दिया हो , वह भाव पुष्ट आह्लादित करुण झरणें (भाव झरण) ही उदार प्राणवर्षण है । रस-झरण सदा सौंदर्य का क्रीड़ात्मक कर्षण करती है । क्रीड़ा रस की झरण को नष्ट नही करती अपितु उसे जीवनस्थ करती है ।
स्व-अर्थ भरे नयन शेष को मृत अनुभव करती है । जबकि परमार्थ के नयन स्वयं को सेवा सिद्ध रख सर्व हेतु सर्वता के अर्चक रूप सहज जीवनस्थ रहती है जैसे नदी , ... और सेवा जीवन होती है सेव्य की सेवा में प्राणान्त बहकर ।  और विचित्र बात है कि अनन्त रसिक-सन्त चरित्र और सत्संगी रस सुनकर भी प्राणी अपने सुखों के लिये भटक रहा होता है , जबकि उसे किसी द्वार पर सहज सेवक होना ही होना है । बलिहार नाटकों में अभिनय सिद्ध द्वार सेवकों की जो दृश्य के श्रृंगार होकर कठपुतली वत सेवक बनें रहते है । बलिहार वह स्वार्थ जो मनुष्य को देह सुख हेतु कई दिनों की रोग शैय्या पर स्थिर रख सकता । अपितु देह सुखार्थ बलिहार शरीर हनन की पीड़ा को झेल कर उपचार चाहते जीव । कब भाव सुखार्थ ऐसे संयोग दृश्य होगें । जब भी आध्यात्मिक य्या भाव पथिक किसी द्वार पर आकर फिर नहीं आता है वह अपना धर्म संकीर्ण करता है (सेवाधर्म) । और संकीर्णता भाव पथ की वह दीमक दिखती है अब ...जो कब भाव को मिटा कर खा जाती है , यह पथिक को अनुभव नहीं रहता । भाव परमोदय निधि है , जो उदारता के सँग से घटना वत सुलभ हो सकती है और उदार-कारुण्या जिसकी अधीश्वरी हो , जिसने अपनी इष्ट की उदारता से रसभाव पथ की सीढ़ी को भीतर निहारा हो , वह कृपण होकर क्या भाव की सेवा कर पाता है ???
अगर यहाँ लोकार्थ रंजन को लक्ष्य कर युगल सेवा उत्सवों की भावना रची है तो अवश्य प्रेमी को दूसरी बार नहीं आना चाहिये परन्तु अगर युगल रस सेवा कुँज की लालसा रखी है तो , क्या उस सेवा में कभी कोई अकेले युगल सँग को झेल सका है , जिस भाँति दुर्घटना में सेवात्मक स्थिति होती है वैसे ही , हे प्रहरी (स्वार्थ हेतु स्थिर अभिनेता) क्या तुम्हें किसी तृषित की तृषा को कुछ लेकर निज हियोत्सव की बिन्दु दान करने की उदारता नहीं रखनी चाहिये । सौहार्द को उदारता का उत्स कहा जा सकता है , परन्तु उन्मादिनी श्रीप्रिया के सुहृद से वर्षित उदार वर्षण में भीगे हे करुण हियधर मेरे सँगी , क्या असंग की नींव उत्सवित शृंखलाओं को तोड़कर होनी उदारता है ।
इसी धरा पर ऐसे भी रसिक है जो रस सँग या सत्य सँग के लिये शत्रु के क्षेत्र में भी मैत्री रख रस देते -लेते है । सत्य वहीं उपस्थित जहाँ तुम खोजने निकल पड़े हो पर हर पर्वत तो गोवर्द्धन नहीं होता न । प्रेमी ही कोई विरला ही , पर्वत सँग पर्व मना सकता गोवर्द्धन लीला का क्योंकि उसकी इन्द्रियाँ(गौ) प्रेमास्पद के माधुर्य का वर्द्धनमय सुहृद झँकृत झाँकी ही रचती है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । कब आओगें  , ना लौटने को हे प्राणेश के प्राण । या मृत ना कर , लें जाओगे ही यह निज दास प्राण नित्य निज हियोत्सव निकुंजों में उच्छलित नव बसन्त से पूर्व झरणार्थ ।

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