परमार्थ और भावदेह , तृषित
परमार्थ और भावदेह
भाव पथिक को भावदेह चाहिये । परन्तु वह स्वार्थ की परिधि को विस्तृत नहीं कर पाता । भजन या साधन किया जा रहा स्वयं को कुछ देने हेतु ही । स्वयं को कुछ न मिले अथवा संचित में तनिक छुटे तो वह सँग नहीं हो सकता है । जैसा कि पूर्व निवेदन हुआ कि देना वह है जो लेने की माँग हो । लोक का धर्म भी वही दान कराता है , मंदिरों की गुल्लक में सिक्का इसलिये डाला जाता है कि बढ़कर मिल सकें । यह देना तो लेने हेतु है सो यह देना है ही नहीं । भावदेह एक परिधि गत भाव नहीं है , वह व्यापक भावों का एकत्र अनुभव है इसी को सजीव पाने हेतु सन्त-रसिकों ने परमार्थ को उदय किया । वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाने रे । यह पर पीड़ा प्रारम्भ में अनुभव करना सरल होगा क्योंकि परता व्यापक है परन्तु जब प्राण अपने अपनत्व को व्यापक देखेगी तो पीड़ा पर पीड़ा नही होगी । अपनत्व व्यापक होता है , अपने प्रियतम के विलास को उनका ही पहचान लेने पर ।
भाव देह और इस पीडा की सेवा में सम्बन्ध है । जो दूसरे की पीड़ा को निजतम मान सकता है , वह ही भावराज्य में व्यापक मण्डल के भावरस से आह्लाद ले सकता है । निकुँज रस में जिसे भावदेह कहा जाता है वह उत्सव में प्रति रस सेविका के हिय आह्लाद को निजता से छुं सकते है । जैसे झूमती श्रीप्रिया वेणी की झूमती फुलनियों का उत्स स्पर्श हो सकता है , जैसे हिंडोलित पियप्यारी के हिंडोला के भीतर हुए स्पर्शो का उत्स प्रकट रहता है । अपनत्व में सभी श्रृंगारों का सुख अपना ही होता है । सामान्य जीव भी निज देशीय खेलदल के हार जाने पर स्वयं को हारा हुआ पाते है । किसी जननी के शिशु को शीतकाल में भूमि पर लेटाने पर वह तनिक भी शीतलता अति होकर पीड़ा देती है । उस शिशु का सुख खोजने पर जननी को ही सुख देना होता है । अपनत्व की ही प्राणी सेवा कर सकता है अथवा जिस पराए तत्व को वह अपने जीवन का कोई रस दे वहां अपनत्व स्वतः प्रकट होने लगता है । किसी को दिया अपना काल भी वहाँ अपनत्व प्रकट कर सकता है । सेवा अपनत्व का ही विस्तार करती है , अपने का ही सुख दुःख स्पर्श हो सकता है सो अन्य की पीड़ा के स्पर्श से घटित होता है अन्य के उत्स के स्पर्श का राज्य । किसी ने भी कभी किसी प्राणी के संताप का निदान किया हो और प्राणों में वेदना रूपी एकाकार होने से अपनत्व न घटा हो यह असम्भव है त्यों ही भावराज्य के उत्स में अपना पन विस्तृत होता है । प्रति झूमती लता-वल्लरी का हियोत्सव तभी स्पर्शित होगा जब किसी लता वल्लरी की पीड़ा को छूने का साधन किसी से सहज घटा हो । स्मरण रह्वे साधन हो रहे है मृत्यु लोक में दुःखों को बाँटने भर के जबकि भावराज्य (निकुँज) उत्सवित राज्य है । भावदेह को प्रति भावना का भाव स्फूर्त करता है । मेरे सम्पर्क में दो तरह के पथिक होते है , एक है जिन्हें किसी की पीड़ा से कोई अर्थ नहीं पर भाव राज्य का स्पर्श उन्हें चाहिये तो वह जब सँग होते है और लीला में घनदामिनी विलसे या शरदीय सरोवर में झूमते रसिले पद्म दलों के मध्य मराल (हँस) जोरी विलसे , उन्हें कोई स्फूर्ति नहीं बनती । जिस भाव राज्य की भावना रज (रेणु) स्पर्श से उस रज के भीतर के उत्स की सेवा देने से होगी , उसी रज के प्रति सेवा प्रकट होना प्रथम आवश्यक है , निकुँज की रज रँगीले श्रृंगार की कीच है जैसा कि लोक में कहीं फूल उत्सव होने पर चरणों मे फूल बिछा होता है वैसा नित्य नव उत्स और नव श्रृंगार भरी दलदली है (चन्दन - गुलाल - जावक आदि के सरोवर और तट तथा कुँज-निकुँज) । परन्तु इस धरा पर जैसे हम स्थूल आकृति में बद्ध है जबकि भावना वास्तविकता को छू सकती हो पर यह देह नित्य सौंदर्य को नहीं पकड़ सकती क्योंकि बाह्य देह स्थूल धरा पर है । वैसे ही सभी श्रृंगार रस यहाँ जो सेवा द्वारा आकृति लेते है वह माधुर्य निकुँज में सहज है (अर्थात चन्दन सहज गलित टपकता मधुवत है , शुष्क नहीं) अब वह लता अपना उत्स प्रकट जब ही करेंगी जब उसे आदर दिया जा सकें । प्राण-प्राण को नमन हो अथवा उसकी सहज सेवा हो । किसी भी पदार्थ या तत्व अथवा प्राण की सहज सेवा यहीं है कि उसके सहज पथ को सहज किया जा सकें । प्रति श्रृंगार अथवा फूल उत्सवित होता है जब वह श्रीहरि श्रृंगार में भागीदार हो जबकि वही फूल लोक में लौकिक नेता या अभिनेता सँग उत्सवित नहीं होता । सन्त वही प्राण-तत्व है जो कि मार्ग में सँग आये तत्वों को अपनी दिशा की ओर (निकुँज-मन्दिर) लेकर जावें । यहाँ सहज पथिक सँग प्राकृत जीव को मन्दिर के शंख - घण्टा - चन्दन आदि भाँति केवल मौन सँग करने से भी निज स्थिति मिल सकती है । श्रीहरि-निजता कभी छिपी नहीं होती है , उसकी एक सुगन्ध होती ही होती है जो परिमंडल को स्पर्श भी करती है । परिमंडल इस सुगन्ध को कभी नमन कर सकता है अथवा अपनी दुर्गन्ध को जान अवहेलना भी कर सकता है (जो कि आप सन्तों के जीवन रस में सुनते ही है कि क्यों कोई विष देना चाहता है किसी खिलती मधुरा को) ।
यहाँ श्रोता मण्डल जो असाह सा सँग अनुभव कर भीतर कुछ भी स्फूर्ति नहीं बना पाते उनसे निवेदन किया जा रहा है कि वह स्फूर्ति स्वार्थ ने भंग की है और परमार्थ वह दे सकता है । परमार्थ किसी का उपकार नहीं है वह अपना ही हित-श्रृंगार है । आज प्राणी एक कदलीफल (केला) दान की भी छबि रखता है(स्मृति) । स्मृति रखनी है तो उन पलों को स्मृत करें जो स्वार्थ गूँथने में नष्ट हो गए । स्वार्थ का श्रृंगार केवल श्रीहरि गूंथ सकते है जबकि वें निजप्रेमी हित से लीलामय रहते है । क्योंकि जिस वस्तु का अखण्ड अस्तित्व हो अर्थ उसी का सिद्ध हो सकता है , सोचिये मेरी तरह हर चींटी अपना पृथक आवास बना कर बैठी होती तो कैसे परस्पर उत्स कभी खिलता । स्वार्थ स्पर्श से लोक में जो उत्स गाँव मे किन्हीं के घर के विवाह में होता था वह अब अपने ही घर के विवाह में नहीं रहता है क्योंकि स्वार्थ आपके सुख दुःख दोनों को आपमें ही भर देता है और इस दुःखालय में सौ रुपये दुःख है तो एक रुपया सुख । (क्षमा धन की बात जल्दी समझ बनती है सो उदाहरण यूँ व्यक्त किया)
वहीं सौ दर्द जब हजार दिल ले सकें तो एक सुख भी हज़ार गुणा होगा ही होगा । प्रति तत्व का स्वभाव स्फूर्त होना ही भावदेह है सो वह कोयल के कूकने पर नाचती है और मछली के छटपटाने से मृतप्रायः हो जाती है , भावदेह में उत्सवों का घटन तो प्रकट है अर्थात श्रृंगार बढ़ता है पर पीड़ा अथवा संतप्त स्थिति स्वप्न स्फूर्ति ही है , वह भी जीवन श्रृंगार रचती है अर्थात चटपटी-छटपटी भी हियोत्सव गूँथ लेती है । भीतर निकुँज का रस , किसी के रस का हनन-खनन मर्दन नहीं है , सखिजन के रस की सेवा नवोत्सव श्रृंगार है । कृपा कर अपना खनन-हनन स्थगित करें और व्यापक श्रृंगार-उत्सव में उत्सवित रह्वे । युगल तृषित। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । स्वार्थ के जाल को जलाकर उड़िये-डुबीए बिहरिये उत्सवों में , किसी चींटी का ही स्वप्न सजाकर देखिये भीतर कुछ सजेगा ही सजेगा ।यहाँ श्रवणार्थ आये दूसरी तरह के भावुक वें है जो परमार्थ परायण है और कभी सुनते है तो उन्हें यह शब्द सजीव स्वयं में उछलते झलकते है । वह अपनी भावाकृति में उत्सवित सभी खगावली - अलकावली - दीपावली - झूमती सखियों की लहराती गीतावली के उत्सवित वजन से भर कर निहार पाते है , वह हर स्पर्श जो श्रीवृन्दावन श्रीप्रिया को करा रहे है । उनकी यह प्राप्ति घटी है सहजता से सहज सेवामय होने से , परमार्थ क्या लेगा आप श्री से , जब त्याज्य स्वार्थ भी वह मीठा कर सकते है ...वह तो देने आता है भावराज्य ..कोई लेने वाला हो । अर्थ व्यापक रखिये अपने दिल को सागर और जीवन को आकाश में चखिये
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