बसन्त विलास उत्सव हेतु भावबिन्दु

*रसिले फूलों की चोट नयनों पर , अधरों पर हृदय पर , श्रृंगार वत कर्णफूल आदि पर , फूलने को उतावली रोमावलियों पर*

*पिचकारी है शहद (फूल का ललितरस ) की बसन्त , वपुओं को मधु में अभिषेक करता उत्स है बसन्त* 

*खुले नयन धँस गए हो ज्यों किसी परिमल सुरभता के सरोवर में इस भाँति भरता हुआ रसिला ललित रँग है नयनों पर ढहता हुआ कोमल रसावेश में रस कौतुक है अति निकट ।*

*नयन या अन्य कर्णफूल आदि झँकृत ही नहीं होते बसन्त से , वह तो भीगे होते है बसन्त की बहार की तरल मदिरावर्षण में । रति उमड़ कर झूम रही होती है पर वह झूम गहन दधि के भीतर नाचती हद्रिका की लतावत होती है जो पौढ़ने के लिये सज कर चल पड़ी है दुल्हनों को कनकता देकर श्रृंगार के मदन रूपी दधि पर रँगों की लोलुप्ति भरी प्रीति लहरों को रँगीन सजा रही है और प्रकट हो रही है शीतल शरद भीगन से रँग उत्सुकता की माधुरियाँ*

*इन प्रफुल्ल माधुरियों के हियरस माधुर्य को पीने को लोलुप्त प्रियतम पी रहे है ।*
       *शीतल शरद का बसन्त सँग आलिंगन कर झूम भर गूँजन पिलाते भँवर पर शीतल रंगीला सुरभित मधु छिटकने को खिलती कलिकाओं में फुलनि की सरस रसिली फुलन मधुता से खिल कर मधु-रति का रसिला विलास झूम कर मधु पान की यह मदन लालसा प्रकट हुई है झूमते मदन भरित माधव में*

*प्रियतम श्रीराधारमण का हृदय व्यक्त-अव्यक्त विलासों का समुद्र है जो वेणु से झर रहा है*

*श्रीप्रियतम श्यामसुन्दर मधुर सुकुमार स्वरूप से परम् उल्लासों की शीतल लहरें छूट रही है जो बताती है कि वें उत्स पीते हुए उत्स पीने को आकुलित है*

*श्रीप्रियतम मनोहर अत्यन्त शोभा से भरे सुंदरतम प्राण है , जो केवल प्राण ही नही है प्राण में खिलती बहुत सी रसिली भावनाओं की लताओं पर फूलों की गुच्छे की भाँति बढ़ रहे है अर्थात मधु और मधु होती प्राणनिधि*

*श्रीप्रियतम अपने हावभाव और श्रृंगारों से अपने हृदय में भरी प्रीति का समुद्र उड़ेलने के संकेत करते हुए , आगन्तुक को नृत्यमय होने की लालसाओं से भर देते है*

*श्रीप्रियतम श्रीराधारानी के एकमात्र प्रियतम इसलिए है क्योंकि वह केवल सर्वगुणसम्पन्न नहीं है , अपितु वह उन गुणों से निज प्राणप्रिया की सेवा चाहने से मधुतम मधु श्रृंगारों-गुणों के एकमात्र धनी है*

*श्रीप्रियतम सेवा भावों की ओर मंजुल (कोमल) दृष्टि रखते हुए , स्वयं ही उन भावलता को अंकुरित करते है और सेवामय होकर वनमाली रहते हुए सिंचन आदि करते है और खिली हुई लता को महाभाव रूपी मधुर कोमल स्थिति देकर रसमय सँग से प्रकट भावपुष्पो स्वयं ही चुन कर मालिकाएँ गूँथ कर उन भाव बिन्दुओ को प्रेम श्रृंगार की कुँजो में सजाना चाहते है*

*सरस शीतल मधुतम चंद्रिका के उत्स से प्रफुल्ल चन्द्र प्रभा दिवस में शरद विलास की सुंगन्धों को लेकर खड़ी है ।*

*उज्ज्वल रस के सँगी श्रृंगार रसिक नागर प्रियतम शीतल सरस् उज्ज्वल मधुरिमाओं को पीने के लिये।* 

*...और गौरांगी सु मधुर निभृत स्वरूप की चंद्रिकाओं के आच्छादन से भीगे रसिक प्रियतम   रँगीन कोमलताओं को पहन कर आ रहे है ।*

*वसन(श्रृंगार) जब अनन्त कोमलताओं में  फूल जाता है तब प्रफुल्ल रसिली जोरी पियप्यारी में रँगों की यह उछालें उच्छ्लन करती है जैसे फूलों में फूलों की बातें होती हो और वह झूमते हुए श्रीविपिन सुख सजाने चल पड़े हो ।*

*भीगी हुई सभी लताएँ अपना पुष्प रस श्रृंगार लेकर सँग करती श्रीप्रिया की , जब अतिकोमल कुमुदिनी वत श्रीप्रिया निज हिय रँगों को ना खोलती फूल हो (खिलने से पूर्व सरस् लज्जामय फुलनि) वह रोम रोम की पंखुड़ियों को उठाने में झुमाने में भर गई फूल श्रीप्रिया के कोमल फूल नयनों में फुलनियाँ कहती है फुलनियों सँग प्रफुल्ल पिय का बसन्त विलास ...कि किशोरी कुँज कुँज मधु-रस-रँग-कोमल प्रफुल्लताओं का अभिसार कर रही है पिय सँग ।*
*कोमल फुलनि श्रीप्रिया कैसे सखी , कैसे अपने निज फूल नयनों पर आई हुई फुलवत कोमल पलक को हिलावें । भीतर पुतलिका वत रँगमय होते निज प्राण कृष्ण के ललित रँगों सहलाती वह कोमल पंखुड़ियों सा श्रीप्रिया की पलक का भीतरी रँगमय ललित स्पर्श पाकर श्रीप्रियतम और समस्त परिमंडल कोमल फूल श्रृंगारों को कनकधारा पिलाकर (हिरण्यता) कोमल शरद को रँग प्रवेश कर निहारती हुई रति की यह अनन्त लहरें सुनती है उज्ज्वल रस की माधुरी छिटकती श्रीप्रिया की शरदीय लहरे जब अति निकट सोम्य आच्छादन करती है तो उस सौम्य शुभ्र कोमलता के भार से तन ठिठुरने लगते है फूलों के । शरदीय सफेद फूल ही फिर और खिल कर करते रहें रात की बातें तो शीतलता प्रचण्ड हिमवत होकर हरण कर लें निभृत होने की कामना का । अतिनिभृत शीतल प्रिया सँग के निभृत वशीभूत प्रियतम के हृदय में रसिले रँगों का उच्छ्लन हो सो बसन्त सजाता वह-वह नायक वपु जो प्रिया के रति सौंदर्य है श्रीविपिन में*

*आम्र -चन्दन या रँगीन फूल या रसिली रति विलास छींटे बरसाती मयूरनियों के हियप्राण मयूरपंख रूपी नयनों से निहारन आदि सँग से सजते है रसिले वसन । नीलमयुर पिय की नीलिमा से वह पहनती है रसिला नीला लिपटन (वह वसन गीले है जैसे आम और चन्दन आदि सुरभित-आम्यरस सी लहराती पीताम्बर)*

*बसन्त आज को आज रखता है , फल फूल ताजा ही नहीं होते अपितु नये होते है , वह कौतुकों को रँग देने के लिये रंगोत्सव को सबसे आगे लेकर चलता है , रंगीले फूलों की मधुवर्षा की रंगिली फुहारें रंगोत्सव है*

*बसन्त निभृत झूम-उमंग-नृत्यलहर-हिंडोल माधुरियों को फूलों के डोल पर बिहरते पियप्यारी वत यूँ लेकर निकलता है जैसे फूलों से सजी धरा के भीतर सहज फूल लताओं ने निज वसन लज्जाओं को पियप्यारी पर छिटकाव कर निभृततम निकट होकर छू लिया हो और झूम रही हो यह फूलती झुमनियाँ (रस-फूल वल्लरियाँ) झूमते पियप्यारी शरद में शीतल निकुंजों में वसन बने हुए सँग रहे तो अब हर निभृत फूल की कोमलताओं के घर्षण से यह डोल अनवरत हो रहा है ।*

*बासन्ती कोमल रतिमय रंगीले फूलों की अति सजने लगी तो वह रस-रँग होकर बरसने लगें इस रंगोत्सव से भीगे कोमल वपु पियप्यारी को लेकर यह झूले हो रही फूल लताएँ लहरा रही निभृत डोल विलास*

*झूमती पंखुड़ियों का सरस् स्पर्श पीते पियप्यारी विपिन के फूल-फूल को खेलकर रमणमय है  , फूल वही फूल है जिसने प्यारीप्यारे रूपी सुकुमार स्वरूप को अनन्त फुलनियों सँग डुलाया हो*

*कोमल रति थिरकन को छूकर वह पियप्यारी को छूकर झूमती शीतल फुलनियाँ अतिनिभृत शीतल चन्द्रिका छटा (कोहरा) होने पर सरक जाती हो पीछे इस भांति पुलक रही है नन्हीं , फूल-पुलकने से महाभावित-रसराज कोमल शीतल सरस रसिक होकर निभृत फूलों का निभृत सँग पीकर कोमल स्मृत करते है अपनी निज जाती-आती विलास-ठिठुरन*

*अतिकोमल शीतलता मेंफूलों की मंजरियों से गरिष्ठ गम्भीर विलास माधुरियों के महाभाव कौलाहल वत स्पर्श होती श्रृंगार की खिंचड़ी वह केलिगीत है जो उकसाती है कोमल दिन में नवघन विलास की प्रथम बसन्त होकर , क्योंकि फुलनियाँ कहती है हमारे सँग इस गर्माई को जब फूल सदनों में , फूल बंगला में , डोल हिंडोल में खेलोगें तब हम गर्माहट को तुम तक आने नहीं देगें अपनी शरद जब वह विपिन को देते है तब वह शरद बढ़ती फुलता हुआ शीतल विलास सँग लेकर । रंगोत्सव  शीतल विलास ही है जो कि रँगों में भीगो देता है और यही शरद शीतल माधुरी जब स्वयं प्रिया ही पिलाती है तो पी नही जाती है । अब रातें भी घूमने-फिरने को कहती हो पर प्रचण्ड शरद भरे शीतल-चन्द्र छटा भरित दिन भी रोमावलियों को झूमती ठिठुरन छूने नहीं देता ...आती हुई प्रकट शीतल शरद कोहरा कह कर लौटा दी थी बसन्त ने उसी में कोमल उष्ण के समुचित श्रृंगारों को मिला कर शीतलता को अब कोमल-मधुतम-रँगमय–रसमय-कोक-गूँजन मय कर दिया है ।*

*शीतल वपुता कोमलांगी प्रफुल्ल हो गई है , बसन्त के विचित्र सँग से लवंग आदि निभृत आस्वादनीय सुगन्धों को लेकर शरद को ललित माधुरी में उछाल रही है*

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