सँग न छुटे , तृषित

रसिक रज लगें सो सँग ग्रहण है ।

किन्हीं किन्हीं को रस की बिन्दु मिलवे पर वह रसिक विमुखी भी हो उठते है , जैसा हमें भी कहा जाता कि रस ने छुआ तो आपने यह सब क्यों छुआ हुआ है ?

उत्तर - रसिक रज हेतु रसिक सेवार्थ ।

प्राथमिक पथिक की कभी अवहेलना न हो , जैसे नवजात में उस जीवन के लक्षण देखें जाते जो हमसे छुटा वैसे ही हमहिं को देखना पथिकों में वह श्रीयुगल सुख जो हमसे कभी न बन सका ।

बहुतायत यह भी देखा है कि तनिक स्थिति बनते ही भावुक असंग कर लेते है , एकांतिक होना चाहिये सेवार्थ और पथिक से असंग न हो भले वह कोई नव पथिक हो । पथिक सम भावना का है तो ...
आचार्यों ने , रसिकों ने , सन्तों ने ,नित्य परिकर अवतारों ने क्या हमें ठुकराया है , हम स्वयं जब ठुकराए ना गए रसिक राज सरकार श्री गुरु आश्रय से तो हम दो तीन दिन के भजन से कैसे किन्हीं को त्यागते है । त्याग में भी विवेक आवश्यक है , अपनी स्थिति के इर्द गिर्द की स्थिति के त्याग ना हो , दूध शक्कर से नहीं फटता है अगर फटता तो खीर न बनती । सो सँग चाहिए ही चाहिए । प्राथमिक को रसिक सँग और रसिकों को भी नव अंकुर , नव ओंस , नव बासन्ती कली का । प्रति भाव कली में युगल सुख है ।
भोग के थाल में सभी रस होते तभी वह पूर्ण होता है , यह भी नहीं कि हम दे रहे किसी को कुछ भी ।
हम सदा लेने को झोली फैलाये है । सो एकांतिक रहना है परन्तु नमस्कार नहीं छोड़ना है । आचार्य चरण  से लेकर नव कलि तक को नमस्कार रह्वे ही रह्वे तब रस स्पर्श रहेगा ।
बहुतायत वाणी सुनकर भावुक कहते कि आप तो भाव में है फिर आप सँग कैसे करते है ?
भाव सुगंधें लेने को सँग रखते है क्योंकि स्वभाविक अलि(मधु पिपासु भृमर) है जो रस को ग्रहण कर रस की सेवा हेतु रस का सँग करता ही है । स्पष्ट रह्वे कि एकांतिक रस या भजन वैसा हो जैसे पति-पत्नी का एकांत होता है परन्तु वह अन्य परिजन से सम्बन्ध नहीं छुटाते । नित्य अधिकतम निज प्राण का सँग बढ़ना चाहिये ही चाहिये तब भी पथिकों को अपनी ओर से छोड़ना नही होता । भाव समाधि ऐसी हो किसी रस वल्लरी की कि उस पर वास करने वाली प्रति चींटी या कीट भी स्वयं उसे उस रस से युगल सेवा करने दे । निकुँज अलि रसदान करती है , रस पीती नहीं है वही रस दान श्रीआचार्य आदि करते है सो एकांत स्थिति भी सँग चाहती है ...रसिक भावुकों का भजन बने सो उनकी सेवाओं के हेतु सँग हो सकता है । वह अपने बाह्य जीवन के लिये परिश्रम न कर भजनमय रह्वे इस हेतु सेवक उनके वस्त्र आदि धोकर सेवा करते है अर्थात यह भजन हेतु एकांत भी जब ही है , जब इसकी सृष्टि श्रीहरि करें । अगर प्रबल एकांत है तब तो सर्वतोभावेन निज प्राण रस का सँग ही हो एक सच्ची वधु वत ।

निकुँज के फल-फूल वल्लरी का सँग नहीं छोड़ते है , वह वल्लरी उन्हें श्रीप्रियाप्रियतम हेतु निवेदन करती है । बाह्य संस्कार में फूल वृक्ष को स्थूल-शुष्क समझ सँग छोड़ता है और क्षणिक काल में वह सुमन (शुष्क) हो जाता है । सँग रसिक-एकांत की सेवा करें , यह प्रेमी को सीखना नहीं होता और एकांत भी सँगी को सुख दे यह भी रससेवी को सीखना नहीं होता । निकुँज देने के लिये भीतर श्रृंगार गूंथता है , कहीं देने को कुछ है नहीं तो स्थिर होकर सूखे कुँएवत भी कपोत क्रीड़ाविलास छुआ जा सकता है । तृषित क्यों विलास सेवक है क्योंकि विलास ही भीतर पोखरों में भर गया है , वही वह दे सकता है । जल पिपासु हेतु यह कुआँ सूखा है पर रति विलास पिपासु श्रीश्यामाश्याम के लिये निकुँज । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय