अप्राकृत श्रृंगार , युगल तृषित
*अप्राकृत श्रृंगार*
अप्राकृत भावना से सँग होने हेतु अपने अप्राकृत जीवन को बाहर लाने हेतु इसी सृष्टि से प्रति तत्व का अप्राकृत श्रृंगार खोजिये ।
हर प्राणी , हर भावना , हर कोई , जो भी सन्मुख हो उसमें श्री युगल का सुख निहारने की कोशिश करें । भौतिकी नयन सन्मुख में अभाव खोजते है , क्योंकि वह अपना प्रभाव सजाते है , परन्तु प्रेमी के नयन प्रेमास्पद का श्रृंगार खोजते है , और आप निश्चित प्रेमी ही है सो सन्मुख स्थितियों में तलाशें सदा हृदयस्थ निधि के सुखों को ।जब सन्मुख स्थिति के वह गुण (महाभाव) लालसा से स्वयं में उच्छलित हो जावेगें , जो उन्हें भी अनुभूत नहीं हो तो आपकी अपनी स्थिति महाभावित होगी ही ...परन्तु वह स्थिति महाभावित जब तक रहेगी जब तक यह सहज घटता रह्वे । आती हुई प्रति घटना को लीलावत निहारने की लालसा हो भीतर । लीलामय निहारन में अपनी प्राप्त देह - इन्द्रिय आदि सुखों की परिधि पार करने को आतुर रहें क्योंकि यात्रा नित्य स्थितियों तक शीघ्र ही गूँथनी है । प्रति सँग से भगवदीय सुख खोजकर उनके प्रति भीतर महाभावित होकर गोपन रीति से वह सुख सिद्ध कर लिया जावें ...जैसे नृत्यमयी तितली भी आचार्य-गुरुवत प्रणम्य हो सके आदि । अगर उनके भीतर के दिव्य श्रृंगारों का अनुभव कर उन्हें भी सुनाया जावें तो उससे इतना युगल सुख नहीं उत्सवित होगा । यहाँ मैं बात कर रहा हूँ प्रति वस्तु जीव - फल - फूल सबकी , सो फूल को कहना कि तुम्हारा यह रँग है , ऐसी सुगन्ध तो उसे कोई उत्स न होगा अगर अनुभव होता है उसके श्रृंगारों का तो भगवदीय (पियप्यारी) का श्रृंगार हो जावें । यहाँ हमने प्रति सँग को अपने नयनों से सुंदर देखने को कहा है । इसमें कहीं भी अपनी हानि नहीं है , श्रृंगार सेवक को श्रृंगार खोजने ही खोजने होगें । जब जीव स्थिति अर्थात स्व को अभिनय भर से सजाती स्थितियाँ सँग होती तो स्पष्ट उनसे पंकिल (मलिन) झरण रहती है क्योंकि दोष ही दोष देखते हुए अपने ही इर्द-गिर्द कीच एकत्र रहता है फिर ऐसे सँग किन्हीं महात्मा का सँग करते है तो वह हृदय सौंदर्य देखने का केवल प्रयास भर कर पाते है जबकि सदेह महात्मा ही नहीं वृक्ष आदि भी सौंदर्य से भरे है और वह सभी असहज-नीरस में भी सहज-सरसता छू लेते है (यथा पापी को भी पुष्प आराध्य वत कोमल सुख देते है , दूध पोषण ही देता है ), सौंदर्य को देखने के अभिनय करने से इस लोक में प्राकृत सँग सुंदर हो सकता हो जैसे अभिनेताओं को प्रशंसक मिलते पर सौंदर्य को सहजता से सहजता के लिये खोजते नयन अप्राकृत सुंदर होने लगते है (भावदेह वत) । जैसा कि हमने कहा था कि सुगन्धों में हास्य-रूदन आदि नव रस भी है और मधुर-क्षार-लवण आदि रसनास्पर्शी रस भी है । अब लालसा स्पष्ट रह्वेगी तो वह पदार्थ अपना कोई ऐसा श्रृंगार कह सकता है , जो चखा नही गया हो और वही स्वाद उस पदार्थ के कहने से पूर्व खोजकर उसे भावात्मक नमन कर निवेदन किया जा सकता है ...अपने प्राण इष्ट को (सेवक होने की लालसा से विश्व और विधाता स्वयं उन सेवाओं की सृष्टि सजावेगें)। बहुतायत हम स्व को नहीं छोड़ते जबकि भीतर वासित प्राण-सरकार को विराजमान रखेगें तो प्रति सँग प्राकृत भोग नहीं अपितु अप्राकृत प्रसाद होता रहेगा । युगल तृषित । जो सुन रहे है वह यह समझ रहे होगें । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । किसी ही तत्व का उद्धार अनुभव से वध शब्द भी नहीं रहता । भीतर वह है तो श्रृंगार अनुभव कर सकेगें ...
सुन्दर ...सुन्दर ...सुन्दर ...सुन्दर ही निहारिये
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