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Showing posts from March, 2020

धावते पिपीलका , तृषित

(विषाणु की पाबंदी में निकले श्रमिक वर्ग की समीक्षा में) धावते पिपीलका अनन्त काल से नृप हो तुम कहते रहे सुखी प्रजा नित्य परोपकार भरित कितनी ही योजनाओं के महेशों ... भोज्य रसो...

रसकलिका , तृषित

*रसकलिका* आती प्रकट भावना ... ..थिर थिराती गजगामिनी... सी उन्मदे माधुरी ... सँग में नन्हीं सी रसकलिका लिए !! कहा भीतर किसी ने नमन करो यह नादप्रिये प्राणे ... पियवर प्रिया ! झुकती जो ...मैं ... ...

विपिन , तृषित

विपिन रस भरित रोमराजियों सँग पुलकित बहते पुलक थिरक रँग और रस के वेग । स्पर्श के मार्गों में ...धावती हृदय धारा बरसाती है जीवन उपवन ! कानन ... निकट और और निकट जो है ... कनक झनक के आनन स...

राग नाम श्रीकेलिमाल जू

श्रीकेलिमाल जू उज्ज्वल रस    -  राग-नाम राग कान्हरो 1-30 राग केदारो 31-52 राग कल्याण  53-64 राग सारँग 65-75 राग विभास 76-85 राग बिलावल 86-87 राग मल्हार 88-95 राग गौड़ 96-97 राग बसंत 98-102 राग गौरी 103-108 राग नट 109-110 अष्टादश ...

नवीन पुलकन , तृषित

*नवीन पुलकन* नवीनता फिर आई प्रति-पद ...प्रति-पद प्रतिपदा होकर यह नव्या नविता नविनिमा । तुम नहीं जानती न कौन हो तुम , कुछ तो नई सी हो ही । तुम नहीं पहचान पाई न इस बाँवरे मन को कहां भा...

भयभीत , तृषित

भयभीत ... आज मैं भयभीत हूँ अब ... स्मृत रहें यह भय ... फिर जो आएगा वह ...कल ... सतर्क रहूँ स्वयं से ... भयभीत रहूँ आज मैं भयभीत हूँ और तब ... स्मृत होता अभी तो ... बीता हुआ वह कल... अपराध थे वहाँ कतारबद...

रँग और सँग , तृषित काव्य

रँग और सँग किसके सँग थे तुम ??? ...कि ... मैं खड़ी रही रँग-पिचकारी लेकर और तुम ... कितनी बार तो कहा तुमसे प्राणे... उत्सव का लग्न बन्धन होने पर हमारे यहाँ ...वर-वधु बाहर नहीं जाते क्यों ... मत पू...

स्वभाव स्पर्श , तृषित

*स्वभाव स्पर्श* वह रस जो सदा से रहा , गया नही और बढ़ता गया । और किसी ने मांगा भी नही ,मांगा तो हम दे नही सके ,वह ही स्वभाव है । स्वभाव अपने द्वारा प्रियाजू की सेवा है और प्रियतम को वह ...

सिंगार हुलसन लालसा , तृषित

*सिंगार हुलसन लालसा * श्रीसहज प्रेम के रसिले विलास खेलती पियप्यारी जोरि को सहज हुलास विलास भरे श्रृंगारों से सजाकर भीतर कौन वृन्दावनिय पथिक नहीं भरना चाहेगा । हुलास विला...

प्राकृत भोग जीवन और प्रेम भरा अप्राकृत भाव जीवन , तृषित

*प्राकृत भोग जीवन और प्रेम भरा अप्राकृत भाव जीवन* बहुतायत भोग विषय के इस प्राकृत जीवन जिसमें हम अहंकार के इर्द-गिर्द सृष्टिमय रहकर जीवनवत है वह जीवन और प्रेमी का प्रेम भरा ...

गोपन , तृषित

*गोपन* कह्यो जावें कि गोपन रह्वैं प्रीति । जोई कहवै , जोई सुं कहवै दोई ही गोपन न ह्वे सकें । साँची होती तौ बोल न सकें ...जेई तौ पक्की रेख है री परि सखी मैं न बोलूं कि मोते वासित हिय भ...