प्राकृत भोग जीवन और प्रेम भरा अप्राकृत भाव जीवन , तृषित
*प्राकृत भोग जीवन और प्रेम भरा अप्राकृत भाव जीवन*
बहुतायत भोग विषय के इस प्राकृत जीवन जिसमें हम अहंकार के इर्द-गिर्द सृष्टिमय रहकर जीवनवत है वह जीवन और प्रेमी का प्रेम भरा जीवन दोनों एक ही स्थली पर लोम-विलोम (विपरितध्रुव) वत है । भगवदीय प्रेमी वही हो सकता है जिसके जीवन में क्षणार्द्ध प्रेम घटा हो । अर्थात सुख लेने की अपेक्षा जो सुख देने की लिये उत्सवित होकर जीवनवत रहा हो । जिसने भी जीवन देकर जीवन रखा है वह प्रेम पथ पर सहजता से झूम सकते है । प्राकृत जीवन में सम्पूर्ण जीवन बड़ी विचित्रताओं सँग भरा होता है क्योंकि वह एक असत मैं के लिये जीवन है , जैसे कि प्रेमी कभी नायक या मुखिया नहीं होना चाहता है वह सहजता से अनुचर-सहचर रहता है । जबकि कौन है जो पांडालों की अग्रिम विशेष गद्दी के लिये उत्सवित न हो , प्रेमी चाहता है कि वह सम्पूर्ण उत्सव की सभी सेवाओं में गुप्त भागीदार रह्वे । जिस भाँति हम देवालयों में धक्का देखते है वह अप्रेम को प्रकट करता है और प्रेमी कभी अपने नयनों को श्रीप्रेमास्पद से हटाता ही नहीं । सम्भव है प्रेमी कहीं छिप कर आराध्य को आराधना में भर रहा हो पर प्रेमी हृदय से दौड़ते हुये अति सन्निकट है । जिसका भी हृदय सुख देने को दौड़ सकता है सम्भव है कि वह धक्का नहीं दे सकेंगे । प्राकृत जीवन में प्रतिक्रिया -प्रतिस्पर्धा आदि है जबकि प्रेमी की क्रिया उत्सव है और स्पर्धा में नित्य झूमता नृत्य । प्रेम पथ पर यशगान की सेवाएं है परन्तु वह यशगान करुण हृदय की मीठी टपकती हुई शहद सी बूँदे हो । जबकि प्राकृत स्थिति में वह प्रेमास्पद का यशगान भी मैं का ही श्रृंगार हो सकता है , मानिये कोई दास अपने स्वामी के लिये यश निवेदन करते हुये ऐसे त्यागों को कहकर प्रसन्न हो जो कि प्रेमी के लिये उचित नहीं है । प्रेमी प्रेमास्पद का आहार-विहार विश्राम बढाने हेतु है , प्रेमास्पद में अपनी इस हेतु कोई स्थिति नहीं है सो ही प्रेमी और सेवक को वह रचना है । असत त्याग का प्रचार कहीं न कहीं भोगेच्छा से भरित हो सकता है , सत्य में जहाँ भी त्याग प्रकट होता है वह अभिव्यक्त होने पर भावात्मक स्वाद नहीं दे सकता है सो प्रति सहज प्रेमी अपने जीवन के त्याग को अपने गुप्त व्यसनवत सँग रखते है । प्राकृत प्रेम के अभिनय भरित जीवन महात्माओं को महात्मा दिखने के सूत्र बताते हुये मिलते है जबकि किसी वृक्ष के भी सहज महात्म्य भरित जीवन से स्वयं में महात्मा होने का सर्वदा अभाव रहता है क्योंकि किसी एक वृक्ष के सहज साधुत्व को भी नहीं पार किया जा सकता है । जैसा कि हमने निवेदन किया था कि फूल पर अधिकार उसके लिये व्यथित अलि-भृमर-तितली वृन्द का प्रथम है क्योंकि मेरे नयन फूल को अनन्य रूप से निहार कर भी सेव्य सुख नहीं दे सकेंगे । सो प्रेमी का जीवन नित्य प्रति क्षण उत्कर्ष प्रेमी निहार रहा होता है , प्रेमी तो एक चींटी के सहज सेवा व्यवहारों से भी हार रहा होता है । सहज प्रेमी का एक ही स्वार्थ है लाड भरी सेवा और सेव्य प्रेमास्पद को भी न जता बता कर की गई सेवा हो वह प्रेमी का हृदय उत्सव सजा सकती है । सेवक को आहार विहार केवल सेव्य की रूचि भर से नहीं अपितु अपने लाड से भरित होकर निवेदन करना होता है कितना ही परोस कर प्रेमी रिक्त है और कितना ही भोग पाकर प्रेमास्पद नित्य तृषित सहज दृश्य है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । युगल तृषित ।
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