रसकलिका , तृषित

*रसकलिका*

आती प्रकट भावना ...
..थिर थिराती
गजगामिनी... सी
उन्मदे माधुरी ...
सँग में नन्हीं सी
रसकलिका लिए !!
कहा भीतर किसी ने
नमन करो यह
नादप्रिये प्राणे ...
पियवर प्रिया !
झुकती जो ...मैं
... वह घुमड़
हिय भर सी गई !!
अहो ...वह स्नेह स्पर्शन !!!
नयनों में अब इतना सिन्धु
कि पट खुले तो नहीं
रोम रोम भीग रहा पर ...
वह मृदु मधुराग भरी
उज्जवलस्मिता
... उड़ेल रही थी !!
सँग आई महिमाएं कह उठी
नयन भरो ... पद नख छटा !
चेष्टा उठी तो इतनी
रसिली भीगी
रत्नावलियों सँग
प्रभासित नृत्य
...मधुता भरिते
...सुकुमार कुमुद तल
नख शिख रूप छटा की ...
अवांछित बिम्ब
उभय हो उठी !!
पुनः वह ही कौतुक
यह ... रसकलिका
और एक
सहजिनी सरसिली
मृदु अधराई वर्षण सँग !
वह रसकलिका
धरने लगी सम्भवतः
मेरे कर में !!!
रसकलिका सँग
स्निग्ध सुकरकंजे
स्पर्श में ...
छूटती थाम ।
नयनों से
...थाम लेने की
कितनी मधुर रेखांकन ।
कहाँ भरती झंकनो को ...
अभी तो कुछ स्व रहा ही ना !
यह हृदय थाम 
... सुना उठी अपनी
अधर वर्षणे सँग ।
... यहाँ हो सहज ही तुम
स्व को खोज रही हो न ...
... वही तो लाईं हूँ
लो स्वभाव !!!
कलिका हृदयस्थ
और सुरभिनि
प्रमोदित
कुमुदिनीप्रिये ...
रसकलिका के
मध्यस्थ समाहित हो गईं ।
स्वभाव की वह
नवेली पुलकनों सँग
बहती मैं ...
अब कहाँ थी
यह स्वभाव ही जाने
सँग उद्भासित
वृन्द रमणियों की
लौटती गूंज में
ध्वनित हो रहा ...
... अब इस कलिका सँग
और पुलकन थिरकन रँग
नवीन प्रीति श्रृंगारों
में वह मिलेगी ... मिलेगी
... कलिका को
पुलकाओं कुमुदे !

स्वभाव कलिका सहलाती
वह पुनः मधुस्मिता
भासित सी हो
पुनः कह उठी ...
   ... पात्र खोज रही न
लो निज स्वभाव !!!
--- तृषित

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