सिंगार हुलसन लालसा , तृषित
*सिंगार हुलसन लालसा*
श्रीसहज प्रेम के रसिले विलास खेलती पियप्यारी जोरि को सहज हुलास विलास भरे श्रृंगारों से सजाकर भीतर कौन वृन्दावनिय पथिक नहीं भरना चाहेगा । हुलास विलास जिनके लिये भोग विषय आसक्त प्राणी भी तरसता है , देखते होंगे आप लोक के समारोहों में उछलते प्राणी की हुलास लालसा को । किसी भी रस को थाम कर जब उसमें प्रवेश करने की उमंग बनने पर भी उसे भीतर ही रखा जाता है तब वह रस भीतर भरा रहता है , जैसे कुछ भावुक बाहर से कठोरता का अभिनय करते हुए भीतर से कोमलताओं का संवहन छिपायें हो सकते है तो वहाँ वह प्रचुर अमनिया कोमलता को भरकर उसकी सेवा सजा सकते है भावनाओं में । वास्तविक लालसा सुंदर हो , अभिनय तो जो मिला वह करना ही है ।
हुलास भरता है अपने निज प्रेमी के सुख के उत्सवों सँग । सो यहाँ युगल परिकरी में हुलास भरें ही भरे और वह सहज अपनत्व सँग हो , न कि नकल वत । जैसा कि कथाओं में आपने देखा है कि कुछ पथिक केवल नाचने आते है , एक बार रामकथा में वियोग लीला के मध्य नाम गान हुआ तो एक पथिक आएं और नाच कर लौट गए ,वहाँ नयनों से रस को नाचना था बहकर ...तो नकल न हो हुलास की , वह भीतर अपनत्व सँग फूटे और भीतर ही फूलै । नित्य निकुँज रस में श्रृंगार नित्य है , वहाँ का फागरँग आदि सघनता से नित्य सँग है सो नित्य पथिक के हृदय में उत्सवों का आदरवत सँग भी नित्य है । श्रृंगारों में सजे , सरस नित्य बिहार की रसरीति ध्वनित होती है रागिनियों के सँग । रस अनुरागी का हृदय आधुनिक स्वप्नों में नहीं है , वह तो गुह्य सहज रस के सँग अति सहज रीति प्रीति में कर्षित है , निकुँज रस रीति में आचार्य वाणियों का रसिक समाज की रसिली प्रीतियो से भयभीत ना होकर उनके भीतर भरें ध्रुवपद - धमार का व्यसन सहज रस पथिक में भरना चाहिए । नव नव निकुँज की अनन्त सुगन्धों की मधुर कोमल सेवाएँ है जो कि अति गहनता से कुँज की लता वल्लरी सब तक सुख वत विलसती है , यहाँ जीवन में बाह्य धूम नहीं भीतर झूम-धूम भरें । जीवन में जो मल मूत्र दर्शन कर नयन शक्ति का अपव्यय करता है वह नयन मूँद कर भीतर खिलते प्रियाप्रियतम के जीवन सुख श्रीवृन्दावन की निकुंजों से छूटे नयन है , त्यों ही प्रति भावना अपव्यय न होकर वह हिय वासित पियप्यारी जोरि का अमनिया सुख हो । यहाँ पथिकों मिलें हुये आनन्द के प्रति दास वत वह आनन्द छूकर भी तृषित होना आ जावें तो वह आनन्द करुणा सँग मिल पाता है , करुणा आनन्द की संगिनि है । ऐसे ही रस अकेले नहीं अपितु खोजें हृदय इस रस के सुख पात्र को तो सन्मुख होती है महाभाव सुंदरी । अभोगी ही भोगविलासों से भरे गोते श्रीजोरी को लगाते है । फिर हृदय में फूल सँग अपनत्व नहीं है तब लता-वल्लरी से प्रीति कैसे बन सकें , श्रीविपिन श्रीधाम की आसक्ति इतनी गहन हो कि हृदय में बेलिनी फूट पडे और एक भावलता भर नहीं समूची निकुंज ही प्रकट हो हृदय में और इस निकुँज कि प्रति लता से धरावत अपनत्व श्रीवृन्दावनिय हृदय सुख से लेकर नए नए सहज रसिले श्रृंगारों सँग हुलसन-विलसन को गुँथा जावें । युगल से सँग लालसा और उनके सुख श्रृंगारों से प्रेम का अभाव दूरी है अपनी ओर से बनाई हुई । मैंने सुना है पथिकों से प्रसाद में मिली जावक के लिये कि मुझे मेहन्दी पसन्द नहीं , सुना है बिहारी प्रसाद पाते हुए कि मीठा पसन्द नहीं है , सुना है कि राग ताल पुरानी नहीं भाती , सुना है कि मुझे तो रँग आदि में कोई रुचि नहीं है , सुना है कि मुझे गुलाब पसन्द नहीं , सुना है कि मैं पान नहीं पाता ... मुझे सुगन्धे नहीं सुहाती आदि आदि ।
प्रसाद उनका वह रूप जिससे वह छुना चाहते हो , और जब अपनी ओर से इतने ताले लगा लिए हो तो वह आवें कैसे ।
आज जीव कहता है कि मुझे निकुँज ले चलो लो लगाओ भोग पिज्जा का , फिर वह कहे कि इतना नहीं केवल तुलसी पाता हूँ ...क्या तुम माखन पाओगे । ...ना ना मुझे माखन पसन्द ही नहीं । बहुतहिं सिंगार नवेली विराजै सिंगार कौ मन्दिर निकुँज तृषित बेलिनी हिय उगाइये ।
...उनको पसन्द जो कर पायेगा वह अपनी पसंद की दीवारें नहीं उनकी पसन्द की स्वछंद निकुँज में खड़ी सहज श्रृंगार थाल लिए परिकरी होगी । उनकी सहजता को इसलिये अपनाइए कि उनकी ओर यही श्रृंगार आपको लेकर जा पाएंगे ...और वह भी कुछ सहज उपहारों सँग मिलने आयेगे । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
विपिन जोरि सजाईं सँग हुलसै आइये
पाग राग फाग जोरि कौ अलि फूल निकुँज नाहिं जोरिसुख बिसारिये
साज सजै सरस बहु राग रँगै नागरी रँग चुनि चुनि री फूल घात गाइये
विलास नवेली लाईं फूल सजाईं हुलसिनी जोरि काहै हुलस छिटकै धाइये
बहुतहिं सिंगार नवेली विराजै सिंगार कौ मन्दिर निकुँज तृषित बेलिनी हिय उगाइये
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