नवीन पुलकन , तृषित
*नवीन पुलकन*
नवीनता
फिर आई प्रति-पद ...प्रति-पद प्रतिपदा होकर यह नव्या नविता नविनिमा ।
तुम नहीं जानती न कौन हो तुम , कुछ तो नई सी हो ही ।
तुम नहीं पहचान पाई न इस बाँवरे मन को कहां भागता है यह ...देखो ...देखो यह फिर भाग रहा है न ...
नई शाख पर उड़ने को उड़ता पँछी । नई प्रफुल्लिनी के कोमल रँग रस चूमते भृमर । और नए कौतुकों में फिसलता यह तेरा मन । मन के रसीले निज विषयों में एक निजान्त विषय है री , नया स्पर्श भावे है इसे । पर मन के सँग अन्याय करते मन के ही दास इस भव में कोई नवीनता नित नई और नई होती छू नहीं पाते ।
नव्या श्रीप्रिया का स्वभाव ही नहीं , स्वरूप भी नवेलनवेली माधुरियों में भरता । और सँग की नित्य प्रति पुलकती पलकें जोहती है नई और नई होती श्रीदुल्हिनी प्रिये को । बाह्य मन नहीं छू सकेगा , सहज रसीले नवीन सौंदर्य को परन्तु सहज मन के सहज रस प्रियतम तृषित है इन नित्य झूमती बहारों में आती सुगन्धों की नवीनता पीने के लिये । नवीन और और नई हो रही है सुप्राणे । प्राण भर रहा और भर रहा और नई नई माधुरियों में डूबकर नवीनता में पुलकता हुआ भर रहा श्रीप्रियतम प्राण रस । नई नयना - झाँक रही नया - दर्शन नई नवेली का । नए-नए होते भीतर भरते हरित वर । प्राकट्य पान करो री ...नित्य बढ़ते पुलकते प्रेम रस युगल में उछलता नित्य नया प्राकट्य । वह पी रही हो अभी ...जो ना पी पाई थी कभी । तनिक भी तुम वह नहीं जो पी कर भर चुकी हो , नई हो तुम... और तनिक भी वह भी नहीं जो कभी पी रही थी , नई है यह रसरँगीली अलबेली जोरी (युगल)।
पी न सकें कोई इतनी नवीनता । ...जीवन अनन्त होकर फिर सघन एक वपु होकर भी निहारें ...निहारें प्रियतम होकर रसपान आतुर होकर तब भी सहज नवीनता स्थिर नवीन यहीं रह पाती है । शेष में नवीनता की व्यर्थ खोज जारी है ...
श्रीप्रिया की नवेली भाव रूप भरी झूमती सुगन्धित रोमावलियाँ भरती है पुलकित वपु श्रीप्रियतम को पुलकन के सरोवर में । प्रियतम को जिन्होंने भी छुआ है वहाँ स्पर्श हुई ही है मुदित भरित थकित और झूमती पुलकनें ...!
एक फूल का और नई सौंदर्य रंगीन कलियों सँग खिलते रहना भी पुलकन को परिभाषित नहीं करता है जो कि श्रीप्रिया के सहज सँग में सहज पुलकनें श्री प्रियतम वपु में भरती है । रोम फूल झारते मधुरसरँग भरे पराग स्रोत-स्रोत । और अनन्त प्रफुल्ल रोमावलियाँ , अनन्त नई रस सरिता में भर खिल रही होती है । प्राकृत अपनी ही देह का भक्त प्राणी यह नवीनता नहीं छू सकता क्योंकि वह संसृत -झरित होते रोम रोम का भक्त है ...जबकि नित्य स्वरूप स्वभाव में पुलकनें सघनोत्तर सघन होकर डोल झूम रही है नई फुलवारियों सी कोमलतम कोमल माधुरियाँ होकर । सरस रसीली माधुरिमाओं की नववयता के रस रँग का बासन्ती पान सँग निहारा ही होगा तुमने उज्ज्वलश्रीप्रिया की मंजरियों । युगलतृषित । फिर तुमसे इस नित नवीनता की मदाकुल उरझनें कहाँ छिपी है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
Comments
Post a Comment