विपिन , तृषित
विपिन
रस भरित रोमराजियों
सँग पुलकित
बहते पुलक थिरक
रँग और रस के वेग ।
स्पर्श के मार्गों में
...धावती हृदय धारा
बरसाती है जीवन उपवन !
कानन ...
निकट और
और निकट
जो है ...
कनक झनक के
आनन सानन ... जो है !
भरे हुए
निशिगन्धा को
रँग वह रसीले
... मनहर जो है !
नहर हर मन भरती
मनहरप्रिये सी
मुग्ध सेजिका जो है ...
और जो बहता भरता
ढहता झूमता
आनन कानन मध्य
वन कहता है
... पुलकनों में
सरिता झरण
और झरणों
में श्रृंगारों ढेर भरे
भरे भरे से वन है ...
... श्रृंगार के ढेर
सज रहे ... हो रहे ...वृन्द
पुलकन ठिठुरन के कौतुक
हो गए है फूल-आभरण !!!
विपिन वर्षण का रस
निभृत प्रीति झकोरें हिलोरें
और होते होते डोल-हिंडोलें !!!
--- तृषित
Comments
Post a Comment