रँग और सँग , तृषित काव्य

रँग और सँग

किसके सँग थे तुम ???
...कि

... मैं खड़ी रही
रँग-पिचकारी लेकर

और तुम ...
कितनी बार तो कहा
तुमसे प्राणे...

उत्सव का लग्न बन्धन होने पर
हमारे यहाँ
...वर-वधु बाहर नहीं जाते

क्यों ...
मत पूछो
बस नहीं जाते
या कहो कि
...हम नहीं जाने देते
और तुम जानते ही हो न
यहाँ उत्स-उत्सव-ब्याह
हमें नित्य खेलना तुम सँग

... भरी पिचकारी
भरे अरमान ...
भरे तन मन के रँग ...

फिर ...
फिर तुमने
किसका सँग किया
जो ...
दधि लगाते ही ...
हल्दी लगाने से पूर्व ही
चलें गए ...

मलयाचल को क्या हुआ
उसने
... नागों को क्यों स्वतन्त्र किया

देखो , यहाँ देखो
... कुछ तो हुआ ही है
जो मन भी
उत्स भूल चुका है
... रँग न उड़े
तुम न मिलें
फूल न छुए
खो गया ...
बसन्त में बसन्त
इनका

विषय तो तुम हो
प्रेमी तो ये ही है

फिर यह मन-बाँवरे
... कहाँ दौड़ गए

मैं पिचकारी लिये
नयन मुँद-मुँद
... मुस्कुरा ही रही थी कि

कोई आई अलबेली
कुछ कह गई नया सा
वह प्रिय तनिक न था
वह सुंदर भी न था
उसमें रस-रँग
...कुछ भी तो न था
... वह भी !!
वह वह भी ...
कुछ और कह सकेगी

क्या तुमने अपना
प्रेम-विष नहीं पिलाया
... और विषय
... भी ...
हो सकता भला !!

धत्त पगली !
न जाने क्यों , फिर ...
वो भूल उठी फिर ...
... फिर तुम्हें

पर मुझे तब भी
तुम याद आते रहें
तुमने कोई नया खेल खेला होगा न ।
किन भयावह कन्दराओं में
छिपे हो !!!
यहाँ तो केवल
जतुका की ध्वनियाँ भर गई है

निकल आओ भी
उत्स होकर उमड़ जाओ
वर मेरे ...
मेरी वधु की पिचकारी में
रँग जाओ !!!

वरण रँग दूँगी
उड़ेल दूँगी और
यह कृष्ण कन्दराएं
हृदयों की
जिन पर तुम
...जतुका वत
लटक गये हो ।

नाम और काव्य न पूछना
उस सखी का मुझसे
जिसने तुमसे शेष
... फिर कुछ कहा हो

हे नित्योत्सव
हृदय तो नित्य रँगा रहने दो न
करो न बसन्त के रँगों की उड़ेल
छोड़ दो न
इस कस्तूरी कुंजन से इन्हें
इन्हें भय है अब
...प्रेम नहीं

पिचकारी सच्ची थी इनकी
आ खडे हो जाओ सन्मुख
नित्य तृषित प्राण वरण हेतु
... मेरे हृदयवर
अंग में भर लो
इन्हें कि
फिर कोई सखी
किसी बेरँग - रँग  की बातों को
... हृदय तक न लाएं
नाम जो मानती ...वल्लभ
और आते-जाते नाम
वह भूली जाएं ...

हियोत्सव
हियोत्सव
हियोत्सव
अखण्ड कर दो
इनमें प्रियतम मेरे

--- तृषित

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