रँगीली रीति प्रीति की रँगाई , तृषित

रँगीली रीति प्रीति की रँगाई

हमें रस रीति को आगे कर उनके निज रँग में रँगना है ।

ना कि अपने रँग में पियप्यारी को रँगना है । उनके ही रँग में रँगमय होना है ।

अपना रँग उन्हीं का रँग हो तब रँगने का रँग भीतर तक छिटकेगा ।

सो सखी री बलिहारी होई जावे ते जोई रँग रस झलकें खलकें रसिली वाणिन सु तेई रीति प्रीति कौ विलास छलके । जोई शिशु परिजन निकट खेलें तबहिं ताई सुरक्षित रह्वे । त्यों चिंतन रसिकाचार्य की छाँव माहिं रसिलो रँगीलो रह्वे । आचार्यन कौ जीवन जोई श्रृंगारन कौ धारी सकें जे सबहिं चिन्मय रह्वे ज्यों आचार्य रसिकन राग रागिनी कौ निज भाव की कूँची सौंप दिए ह्वे तौ जे रागिनी सहज रागझरणी हौय गई ह्वे।  जोई रँग सेवा सुं हमहिं के पूर्वाचार्य परिजन रिझाई रह्वे ह्वे , ते बोल बोलिये जू । इह सामर्थ आदि कौ प्रथम अर्पित करि दई तब जे निज बोली कौ बोल भरि देवेंगे । चिंतन वाणीन की छाया - सुगन्ध माहिं रह्वे तौ सहज सुख रह्वेगों ही रह्वेगों । जे रस रीति प्रीति कौ काल्पनिक न होबे , जेई तौ नित झरित भरित ह्वे तौ जेई कौ सँग आप पे आप की कृपा ह्वे री । जोई दिन शिशु परिजन सँग सुं पृथक हौई के विशेष जीवन रँग रस पाई सकेगो तबहिं रसिलो चिंतन व्यापक भाँति भाँति कौ सटीक रह्वेगों । ज्यों नन्हें शिशु कौ लोक बिहार कौ मार्ग आदि न चिंतन करणो पड़े परिजन सँग सुं जैई सोवत सोवत ही यात्रा करि सकें त्यों रस रीति की पकड़ निज ताई रह्वे । जे रस रीति सहज निरालो सँग ह्वे , आप आप की लीला ना री रसिकन की भाव झारी कौ सँग निरालो रह्वे , रसिकन के सबहिं विलास माहिं जुगल कौ निभृत सुं निभृत रँग रस भरी रह्वे ह्वे । ज्यों हिंडोल राग मध्यरात्रि की राग ह्वे तबहिं जेई भीतरी हिंडोल रीति प्रीति नित रह्वे ही रह्वे , कुँजन ते निकुँज तांई ।  जोई लोक माहिं शिशु की निद्रा न भंग करि के सोवत ही कलेजे सुं लगाई के एक स्थली (कुँज) ते नव (स्थली) कुँज लेई जावें त्यों जे रस सखी विलसाईं सकें रस रीति वाणिन कुं निहार बिहार करि । वाणी तांई नकल करि के ना आइये कि जे पाठ करि ह्वे तौ हमहिं कौ भी देईं दयो । वाणी तांई आवे हेत प्रथम इन्द्रियन कौ प्राकृत तेई मुक्त करि लें । अबहिं तौ जीव कौ लीला दर्शन ही अंग्रेजी में भावै री , काहे भावे है इन्द्रिय कौ गौप्य स्वाद उभय न हुयो ह्वे ।  जेई नयन-वाणी-श्रवणा जोई साँची ते स्यामघन आस्वादु हौईं जाय तौ का तबहिं भी प्लास्टिक के फूल सींचत रह्वेगी । प्रकट आस्वादु इन्द्रिय जब वाणी सँग रह्वेगी तौ ऐसो विलास रीति प्रीति देवेगी कि रोमांच थमेगौ ना कि अपितु बढ़त ही रह्वेगों । तौ रसिक सखी जेई प्राकृत रीति प्रीति कौ लाड पे रस रीति की माधुरी डाली चाटहिं के देखि लें । तबहिं प्राकृत जितनों भी श्रृंगार जुटायो ह्वे सबहिं बहाई के रस रीति कौ नित सहज रँगीलो अनुराग माहिं रँगवे हेत उड़त डोलत फिरेगी अलिवत फुलनि ते फुलनि । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
एकहिं माहिं प्रबल रसिली रंगिली लिपटन रह्वे ,

*ललित गलित बिहारिणी बोलि गाईये*
*रस रीति सुं भरि-भरि श्रीपियप्यारी पाईये कि रिझाईये*

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