स्वभाव स्पर्श , तृषित
*स्वभाव स्पर्श*
वह रस जो सदा से रहा , गया नही और बढ़ता गया । और किसी ने मांगा भी नही ,मांगा तो हम दे नही सके ,वह ही स्वभाव है ।
स्वभाव अपने द्वारा प्रियाजू की सेवा है और प्रियतम को वह ही आकर्षित करता है किसी भाव रमणी में , उन्हें उस स्वभाव में प्रिया की झलक लगती है ।
स्वभाव में प्रियाजू के वह भाव है जो हमारे इष्ट भाव है श्रीप्रिया में अनन्त भावरस है नित्य नवीन होते हुए । जैसे फूल कोमलता - मधुता - रँग - सुगन्ध आदि दे सकता है वैसे ही स्वभाव में अपनी कोई रस माधुरी है , जो जगत मिटा नहीं सका वह सौंदर्य । प्रियतम के सँग कोई सहज होता गया हो और उसमें कोई विशेष सौंदर्य ही ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता । स्वभाव को छूकर ही भावदेह भावराज्य को छूती है क्योंकि वह स्वभाविक ही राज्य (स्थल) है । अनन्त जाति की लताएँ - खग - फूल - रत्न -आदि सहज श्रृंगार में स्वभाव सँग रहना श्रीप्रिया का स्पर्श है । हमारा यह भी निवेदन रहता है कि निकुँज पथिक प्रियाप्रियतम को और उनके ही सुख को खोजें । ना कि अपने स्वरूप आदि का ही चिंतन रह्वे , बहुतायत ऐसा भी चिंतन होता है कि भावनाएँ श्रीप्रिया सँग है और वह अपने पहनावे श्रृंगार आदि को ही देखती हो चिंतन में जबकि प्रियालाल सँग हो । मञ्जरी किंकरी का चिंतन कोमल अपनत्व में भीगी दास्यभावित सेवाओं की सहज चिंता का होना चाहिये कि उन्हें कैसे और सुख रहेगा । वह सुख देना ही जब उन्हें छू जावेगा तो निज स्वभाव स्पर्श होगा ।
सँग की महाभाव लताएँ अर्थात कोई सखीजू जो सँग है , वह निज स्वभाव को सेवा में नहीं हो पाती तब तक रसिक आचार्य या सँग के प्रकट सखी पर ही वह प्रभार रहता है । अर्थात जैसे हमारे वाणीसेवा भावों में किन्ही रसिली सखियों के हृदय की लहरें है जो वह तब ही छू पाती जब अपने स्वभाव का स्पर्श हो । जैसे शरद , सुगन्ध , पुलकन आदि । तृषित । तो अपने उस सौंदर्य को खोजिये जो मिट नहीं सका ...श्री हरि गुरु वही निहारते है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । श्रीवृन्दावन ।
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