धावते पिपीलका , तृषित
(विषाणु की पाबंदी में निकले श्रमिक वर्ग की समीक्षा में)
धावते पिपीलका
अनन्त काल से नृप हो तुम
कहते रहे सुखी प्रजा नित्य
परोपकार भरित
कितनी ही योजनाओं के महेशों
... भोज्य रसों के चोर वितरक
सदा कहा ही तुमने
तृप्त है पिपीलकाएं ...
अनवरत धाव वें
काल काल का जीवन जोहती ...
देने को उतावले कर
कहाँ दे सकें ...
कभी समुचित वितरण !
...एक काल का ही तिनका जुटा
पिपीलकाएँ कन्दराओं में छिपी सी
निकलती ही है ...
संग्रह शुन्य पिपीलकाओं की
नित्य कतारें !
चींटियों की कतारें ...
सुहाती नहीं हो
पर निकलती ही रही
कहती है यह कतारें ...
मानव तेरे वितरण की
असत सत्ता का सत्य !!
आज भी यह पिपीलकाएं
दौड़ रही है ...
...यह कन्दरा ढह गई
और वह कन्दरा निकट नहीं ...
सो दौड़ रही है ...
परन्तु
... ध्वस्त करते
निवासों का हरण करते
आज कितने बेबस हो !!
निज निज वास की
... वांछाओं सँग !!!
मात्र एक पिपीलका
की अतृप्ति ...
और झरते महल
तृप्त पुष्ट तुष्ट चीटिंयों
का भारत लौटाओं
हे सिद्ध अशोक ...
... सुराज्य राम पाओ
... भृष्ट
असुरराज जो हुआ
पुनः भृष्ट वर्तमान ...
... तो सजायेगी वह
स्वरचित भूत...
युग कहते गए
त्याग दें स्वार्थ
रच लें परमार्थ
भृष्ट इतने हुए
कि सनातने के
... शिष्ट उथल गए
और दौड़ती चींटियाँ
पिपीलका !
... देनी होगी पुष्टि
इस आयोजन में !
आज तो भृष्ट पुनः
तुम हुए
तो ...
प्रलयित निवासों का
एक ध्वस्त कारण
... होगें तुम ...
दोष चींटियों पर नहीं
रच देना ...भृष्टे
... वन कुचलते
व्यसनी विषयी गजों ...
हस्ति हेतु हस्त में छुपाओ
एक-एक पिपीलका ...
निज भोग के चाटु
अब होटल नहीं
सेवाओं के सहज
आश्रम तलाशों स्वयं में ...
अतृप्त पिपीलका
बाह्य गमन में होगी
पलायन तुम्हारा रच जाएगा
...विसर्ग को सर्ग में भरो !!!
--- युगल तृषित
पिपीलका - चींटियाँ
( वर्तमान शिष्ट प्रधानसेवक सँग भृष्ट एक भी हुआ तो विश्व रोगमय रहेगा , वितरण से दीन को पुष्टि दे , तिजोरियों को भरने पर महल ध्वस्त होगें , दीनता बाहर आई क्योंकि योजना चींटियों के निवास तक नहीं आती )
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