शंकराभरण - बिलावल - तृषित
। बिलावल । सागर के तट पर कीच का उछलना भी बिलावल होगा ।। अर्थात् परिमलित फुहार का गलित स्पर्श । नदी के गीले तट को जो अनुभव नाग के चलने का होता हो । या किसी नायिका को यह लिपटे हो और वह गतिमया हो । यह आभरण है , गौरी की सुराताई में प्राप्त श्रृंगारों का रँगन । श्रीललित प्रियामाधव को यह अनुभव फूल श्रृंगारों में भी रहते है ज्यों शंकराभरण धारित हो । और श्री गौरी सँग विलास में श्री केदार को उनके पुष्प श्रृंगार का गलित स्पंदन होना उनकी बिलावल है । अर्थात् बिलावल के दो रूप है एक में वह सरोवर की तरँग हो किनारे तक आ रही है तो दूसरे रस में वह परस्पर उत्सवित श्रृंगारों का रँगन है । ज्यों श्रीप्रिया पर श्रीप्रियतम के अलंकार (यह अलंकार केवल दृश्य आभूषण भर नहीं होते , यह प्रेमास्पद आवेशों में भरित दशा होती ) श्री केदार विलास में गौरीशिव परिरम्भन में प्राप्त शिव अलंकार श्रीगौरी को फूल वत ही अनुभव होते बस वह कुछ फिसल या गतिमय होते जैसे कि वह सचेतन मालिकाएँ हो । यह बिलावल का एक झँकन है । शेष कभी । अब भी इसका चिंतन ना बनें तो अपना नाग शैया पर विश्राम का संकल्प कीजिये । वि...