पुर्वाराग संस्कृति । तृषित
*पुर्वाराग - संस्कृति*
ध्रुवपद गायन लगभग लुप्त है और शेष है तो भी यह सूचनाएं नहीं कि उसके सँग से लीला दर्शन बन पड़ता ।
कोई भी रसिक-पद ध्रुवपद रीति से गान हो तो वह गायक और डूबकर सुनने वाले को दृश्य हो सकते है ।
वर्तमान ऐसे गायकों को भी यह सूचना नहीं है कि यह चेतना को निर्मल भावना में भीगो देता है सो वें पूर्ण आन्दोलित नहीं हो पाते । ध्रुवपद का चमत्कार अगर भजनीय जनों को भी पता चलता तो वें इसे सुरक्षित कर ही लेते ।
यह विधा लगभग लुप्त है और लगभग सब पद सन्मुख होकर भी सुरँग प्रकाश हीन ।
हमारी पीढियां परम्परागत रीतियों में अपनी नव पीढ़ी को डुबोई भी नहीं ।
वास्तविक संगीत जितनी शीघ्रता से भीतर की यात्रा पर ले जाता वैसे ही पाश्चात्य या मॉर्डन संगीत भावना भँग कर देता । जैसे एक सुर है तो एक असुर और आगामी पीढ़ियाँ असुरता के सँग है । प्रेम लालसा से संगीत एक सन्धि है और प्रपञ्च की इच्छा से संगीत ही विभक्ति हो सकता है । वाद्य भी जो संस्कृति गत है वें ही भक्ति पथ के सरस प्रवाहक है और जो आधुनिक वाद्य है वह पाश्चत्य लालसा का ही राग प्रकट करते है जैसे गिटार विकृत बाह्य मात्र ध्वनि है तो सीतार में ललित रस प्रवाह है । मनो कल्पित ध्वनि निकुँज में ना स्वयं जाती और ना ही सँग लें जा सकती । वर्तमान में गिटार एक मुख्य अंग है सो वैसा संगीत वास्तविकता को स्पर्श नहीं करा सकता और यह अनुभव आध्यात्मिक पीठों को क्यों नहीं हुआ ... ?? तो उत्तर मिलता है ... कहीं न कहीं , भीतर सुक्षुप्त होकर स्वप्नमय भौतिकी लालसा (पाश्चत्य सुख) । विगत दशकों में आध्यात्मिक केन्द्र वहीं दिव्य माने गये , जिनके ज्यादा से ज्यादा भारत से बाहर आश्रम या केन्द्र है , भारत से बाहर गया गेंहू भी पिज़्ज़ा होकर लौटता है ...अध्यात्म अगर भारत से बाहर जाएगा तो केवल अपनी वास्तविक सम्पत्तियों को लौटाने हेतु , वहाँ बसने हेतु नहीं । भारतीय इतने पाश्चत्य के भोगी हो गए है कि आने वाले समय में पाणिग्रहण संस्कार भी अंग्रेज करा रहे होंगे । मैं एक श्रीललित कृपा से हरिदासी वैष्णव हूँ , परन्तु सामान्य जन मुझे इस्कॉन का ही समझ पाते है काश उन्होंने एक और शब्द पहचाना होता (गौड़ीय रस रीति) तो कुछ हद तक उनकी इस पहचान से कुछ लज्जाँकन प्रकट होता । जो रज तत्व को मानते है उन्हें मानना चाहिये कि विदेशी स्वर ध्रुवपद जैसा कुछ छू नहीं सकते क्योंकि इसके लिये रजरानी कृपा हो ही । कोई विदेशी अगर कुछ पीढ़ी भारत में भारतीय होकर रहें और भूल जावें अपने पाश्चत्य संस्कार को तो कुछ पीढ़ी बाद दिखाई दे सकता है उनमें इस रज की बीज शक्ति । ध्रुवपद जैसी विधा के रसिक श्रोता मात्र श्रीललितमोहिनी बिहारिणी बिहारी है , शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञों को अनिवार्यतः श्रीवृन्दावन में अपनी सेवा विधा को कभी न कभी निःस्वार्थ निवेदित करना भी चाहिये क्योंकि पूरे ब्रह्मांडो में उन्हें श्रीयुगल जैसे सरस श्रोता नहीं मिल सकते । गङ्गा-यमुना-सरस्वती के छींटे भारत से बाहर जा सकते है परन्तु पूरी नदियाँ नहीं और जिसे भी रस रीतियों या अध्यात्म में डूबना है उन्हें आना ही होगा इन घाटों तक । भारतीय सम्राटों को भी इन नदियों की रक्षा करनी चाहिये , भले वह ब्रह्मपुत्र हो या सिन्धु । यह बहती हुई संस्कृतियाँ है । जिसे भी होली खेलनी है उसे उच्छलित सिन्धु के तट चाहिये ही चाहिये । बाहर की और आकर्षित धर्मगुरुओं से निवेदन है कि बचे हुए कुछ भारतीयों को लूटना ही है तो पूरी की पूरी नदियों को उठाकर लें जाइये , संख्या करोड़ों दिखती है परन्तु वास्तविक भारतीय अब लाखों ही होगें शेष तो पीठाधीश्वरों के पासपोर्ट बताते कि हृदय से वह कहाँ वास करते है । भारतीय मूल नागरिक का भारत त्याग एक महा-अपराध है और एक दो दशक बाद यह सभी प्रवासियों को अनुभव हो चुका होता है । सभी नदियाँ दिव्य रूप में प्रकट है अपना विलास वह क्रमिक गोपन कर रही है , जैसे लुप्त सरस्वती नदी । यह बाहर ही नहीं लुप्त हुई है अपितु पथिकों के हृदय में भी स्पर्शित नहीं , भावना में हम इन सबकी उमंगित हुड़दंग देखकर जब लोक दशा में आ गिरते तो ऐसा लगता जैसे कोई चित्र रँगहीन हो गया हो । श्रीयमुना महारानी का यह दिव्य आह्लादित प्रेम लहरांकन क्या पुनः पुनः उच्छलित हो सकता है , अगर हुआ तो इस धरा में सहज प्रेम के बहुल पुष्प खिलेंगे । लुप्त सरस्वती नदी अगर लौकिक भी प्रकट होती तो ध्रुवपद के आह्लाद को यूँ वेदना में भीग कहना नहीं पड़ता । मञ्जरी उपासकों को भी अनुभव होना चाहिये कि प्रत्येक मञ्जरी एक नवीन ऐश्वर्या है और वह अपना स्वभाविक विलास श्रीललित नागरीनागर पर आलोड़ित कर ही मञ्जरी हुई है , क्या श्री गङ्गे सहज चरणामृत नहीं ... ! भारतीय का हवा-पानी-और कण-कण लीलाओं से भीगा है । पूर्व काल में ऋषि अथवा राजा धरा से जल लेते थे तो नदी का आह्वान करते थे अपितु सभी अर्चनाओं में पानी को जल करने की क्रिया में भी नदी और औषधियों का समन्त्र आवाहन हुआ ही है । नदी के तट पर सिद्ध साधकों के कमण्डल अपनी उसी साध्य नदी से पूरित रहें है यह साधना का वह विज्ञान है जिसे हम छू नहीं सकते , हमें भी श्रीवृन्दरज के पात्र में श्रीयमुनाजल पीने का ललितोत्सव कृपा से प्राप्त हुआ है । जिन भी महात्माओं को पश्चिम संस्कृतियों की चिंता है वह उन्हें कुछ पीढ़ी भारत मे रहकर भारतीय होने का आशीष दें । इस धरा की मिट्टी बनकर ही इस धरा का उत्सव छुआ जा सकता है ...पाश्चत्य लोलुप्त दशाओं से क्या कहें , वह थिर स्थिर कोक-कलामय विष्णुपद । पश्चिम सँग का प्रभाव है कि कहीं छूट गई बात भी आते आते इस ध्रुवपद की । युगल तृषित ।
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