अमैत्री और प्रेम दशाएँ , तृषित

जीवन में कोई भी सँग आई भावना का उपहास या अनादर नहीं बस सहज प्रणाम और अपना पथ दर्शन । 
कहीं भी राग और द्वेष बने इससे उत्तम होता कि वहाँ से ध्यान हटें (उपेक्षा)। अपेक्षा नहीं हो तो राग और द्वेष नहीं बनता है जैसे लोक के अनन्त अपराधियों का चिंतन नहीं बनता है जबकि किसी ओजस्वी या नायक या नेतृत्व (आचार्य) के प्रति तर्क के केंद्र बन जाते है । 
जो युगल तृषित आप सुनते है , वह स्वस्थ ललित दशा जिस तरह उस काल में मुझे स्वछन्द और स्वतन्त्र चाहिए होती है तब जिन्हें भी अपने राग या द्वेष मेरी आवश्यकता उनको विस्मृत कर ही ललित रस में भीग सकते है । 

सो आप भी ललित निकुँज रस में जब भीगे , तब बाह्य संस्कारों को पूर्ण छोड़ दे । लोक भी सद्मार्ग की उपेक्षा कर अनुचित पथों में चलता ही चलता त्यों हम अपने निर्मल पथ पर भीतर ही भीतर उड़े या तैरते रहें 
एक नए युग का बालक भी लाख मना करने पर फोन पर गेम खेलना नहीं छोड़ता त्यों हम भी ज़िद्दी बने । 
भोगी किन्हीं का चिंतन ना कर भोग को भोगते है परन्तु प्रेमी सर्वदा अन्यों का चिंतन कर अपने प्रेम के जीवन को बद्ध कर लेता है । प्रत्येक प्रेमी यह मानेगा कि उसने उतनी स्वस्थ उड़ानें नहीं भरी जितनी उसके भीतर के प्रेमास्पद ने उससे चाही हो । प्रेमी होकर रहना अपराध सा लोक में सो भोगी होने का अभिनय रखना पड़ता ही है और यही बन्धन खोलकर युगल तृषित सी घटनाएं घटती है । 

भोगी यह चिंतन करते कि किये गए कृत्य में स्वार्थ क्या हो सकता है और उन्हें उनके चिंतन के विश्राम में जो भी सन्तोष करती भाव लहरें , वह उनका अपना विचार होता जिसमे उन्हें वह व्यर्थ से कारण पता चल जाते जो कि प्रेमी को भी नहीं पता होते । 
प्रेमी को कई क्यों का उत्तर देना जब होता तब सहज अकारण हुए किसी उमंग का व्यर्थ तत्व ज्ञान बताना होता । वरण् प्रेमी जब किसी दिशा में देखता है तो बस देखता है उसके पास बताने को यह नहीं होता कि वह क्या और क्यों देख रहा था ??  ...पर पूछने पर उसे सोचना पड़ता कि वस्तुतः मैं देख क्या रहा था और वह उत्तर स्वस्थ उत्तर नहीं होता ...अपने कृत्य के इन अनावश्यक विस्तारों से भीतर व्याधि बनती क्योंकि प्रेम की भीतरी दुल्हन सम्भले नहीं सम्भल पा रही होती और उसका जीवन समेटे रखना एक पीड़ा तो ... उस भीतरी जीवन को उछाल देना भी बहुतों को पीड़ा । तब भी प्रेमी भीतरी सुगन्धों को ना उछाल कर अन्यों की वाञ्छा में बद्ध पुतले भर बने रहते है परन्तु यह प्रेमी को दिया गया मौन कि प्रेम मौन है तो वह एक ऐसा मौन है जैसे पूर्व काल की कोई दुल्हन अपने ससुर समक्ष मौन हो , उस प्रेम दुल्हन के प्रियतम तो जानते ही कि भीतर कितनी उमंगित उछालें है । इन्हीं उछालों का कलात्मक प्रकट होना , प्राणी मात्र के हृदय का उपचार है । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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