फैशन या ललित दर्शन । तृषित

बाहरी भक्ति मार्ग के पथिक बहुत ही उथले में ही रहकर इनके प्रेम पर अपना कथित प्रेम लादकर प्रसन्न है । 
उन्हें सहजता और वास्तविक सौन्दर्यता की गति से अधिक महत्व भीतर की पश्चिमी लहरों का अनुसरण । 
पश्चिमी लहरों को निज रस में डुबोने के स्वप्न ने आज भगवदीय स्वरूप स्वभावों में पश्चिम विकृत संस्कृतियों का बहुत प्रभाव बना डाला है कि अब सरसता या सहजता तक कोई लोलुप्त ही आ सकेंगे । शेष को छबियो में श्रीहरि ललित सरकार के सुभग कोमल घुँघराले केशराशि का नया फैशन ही लुभा रहा होगा । और विषयी चित्त पर बहुत ही सहजता से यह पश्चिमी रँग बनेंगे ।
कहीं कहीं तो अपने भीतर आधुनिकता मिश्रित भक्ति इतनी प्रबल रहेंगी कि रस रीतियों के प्रमाण और अनुभव भी इन पथिकों को सरसता की ओर द्रवित करें तो श्रीहरिकृपा ही ।
रसिक रीतियों के मीन और पद्म के त्रिभंग सौंदर्य को भँग करते विशाल नयन सरोवरों की अपेक्षा प्रचलित इन छबियो के नयनों में सामान्य मानवीय नयनों सी क्षुब्ध दृष्टि भी है तो कारण कि इन पथिकों ने स्वीकार कर लिया कि कोई भी लौकिक चित्रकार रच सकेंगे मधुर ललित प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर बस वह अपनी रचित कल्पना को मयूर पँख और वेणु (बाँसुरी) धरा दे । इन श्रृंगारों को नमन परन्तु उन्हीं प्यारे से प्राप्त और मधुर सौंदर्य लालसा के वशीभूत रीति गत भीगा ललित हृदय कैसे धैर्य पावें इन भौतिक संकेतों सँग ...कुछ नया करने की लालसा में इन रचनाकारों ने मयूर पँख को भी कोई कल्पित आकृति (डिजाइन) दी हो सकती और तनिक प्रेम की ओर झुकते श्रृंगारों के इन निकुँजबिहारी के ढहते श्रृंगारों को मनोकल्पित तनाव में कहीं भी पिरो भी दिया हो ।
हमारे यहाँ की रसिली रीतियों में नाम उपासना में ही दर्शन और लीला निहित है तो स्वरूप अर्चन भी शालिग्राम शिला और ऐसी ही स्वरूप के चिह्न दर्शाती भावमणियों का बना ही रहा है । 
वास्तविकता और सहजता बहुत कोमल गतिमय है कि वह इतनी तीव्र गति नहीं भागती की क्षितिज से पूर्व ही कहीं विश्राम बन पड़े ।
पूर्व काल में उपासकों के पास दौड़ते वैचारिक यन्त्र नहीं होने से स्थिर भजन के अवसर रहें है और तब भी बहुत समसायिक मूर्तिकार भी भावुकों के हृदय में आभरित श्रीजगन्नाथ दर्शन का सम्मोहन झार नहीं सकें । 
हमारी रीतियाँ प्राकृत दर्शन मात्र नहीं देकर ...भावचेतना का आह्वान कर उसे कहीं अनुपम अद्भुत प्रेम जगत में ले जाती रही है ।
पूर्व के चित्रकार या मूर्तिकार भी किन्हीं दिव्य सिद्ध दशा में वास कर ही कुछ अभौतिक ही चित्रण दर्शाते भी रहें है और ऐसा किसी भी कलाकार को जब ही अनुभव होता है जब वह श्रीहरि सेवा और सुख इच्छा के लक्ष्य सँग स्वयं के कल्पना जगत को स्तम्भित कर कुछ अपरिमित ब्यारित होते रागात्मक स्वरूप को तूलिका में आबद्ध करने की लालसा से जो झाँकी प्रकट हो उसके दर्शन से स्वयं आश्चर्य नमित मात्र रह जावें और तनिक भी भौतिकी इच्छा (ख्याति-समृद्धि) इस भावसेवा के मध्य ना प्रकट हो ।
सभी कलाएँ भक्ति महारानी श्री आह्लादिनी का ही तरंगित विलास है और उन्हीं से प्रकट और उन्हीं में समाहित भी है । 
पूर्व में पवित्र-निर्मल वातावरण रहा तब ही नहीं अपितु अब आधुनिकी परिवेश में भी कलाकार के हृदय में प्रीतिप्रियतम के स्वरूप और विलास क्षेत्र रचने के संकल्प प्रकट हुए ही है । कला डिजिटल प्रकट हो रही परन्तु वास्तविक कला सेवकों का हृदय कहीं न कहीं किन्हीं ललित सरोवरों में भीगना चाहता है और इन भावों के उद्रेक के प्रथम आवश्यक है हमारे रीतिगत पूर्वचार्यों के दर्शन को नमन ।
जिन्होंने श्रीवृन्दावन की कल्पना नहीं अपितु दर्शन किया हो वहीं साहस करें ध्वनित तरँगों को रँग बद्ध करने का । नित्य निकुँज लीला में श्रीविपिन का अनुभव या प्रकट श्रीविपिन में विराजित श्री रसिकहिय स्वरूप श्रीललित निधियों का मङ्गलमय दर्शन और दर्शन लोभ ही वास्तविक श्रीकृष्ण  सौंदर्य लालसा को रच सकता है और वें सप्त निधियाँ है ...
श्रीराधागोविन्ददेव जू - श्रीगोपीनाथ जू - श्रीमदनमोहन जू - श्रीबाँकेबिहारीजू - श्रीराधावल्लभलाल जू - श्रीजुगलकिशोर जू और श्रीराधारमण जू । सप्त निधि जू में किन्हीं का दर्शन और दर्शन लालसा मात्र किसी भी रचनाकार के हृदय को बाहरी आवेशों से झारकर कुछ-कुछ ललित चिह्न प्रकट करने की कृपा कर सकती है । युगल तृषित ।  ...यह सप्तनिधियाँ रस रीति सेवाओं से सुरभित-मधुरित और बहुत पुलकित है कि प्रार्थना है कि किसी भी सेवक वृत्ति को इन्हें फैशन में रँगने का संकल्प ना बनें । फैशन का विपरीत तत्व है सरस ललित रस रीतियाँ ।। श्रीवृन्दावन । ।

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