कर्म - तृषित
*कर्म*
प्रायः अपने भौतिकी उपद्रवों के लिए कहा जाता है कि मात्र कर्म करो फल की चिन्ता ना करो । हमारे वें उपद्रव जिन्हें क्रियाकलाप कहना भी इस दिव्य शब्द का अपराध ही है ... श्रीमद्भगवतगीता जी के आधार पर यह अर्थ किया जाता है और कुछ भी करने को कर्म कह कर आगे समझा जाता है जबकि कर्म का सम्बन्ध सामान्य स्वार्थपूर्ण भौतिकी कृत्यों से नहीं है । कर्म है किसी वृक्ष का सौन्दर्यमय होकर पुष्प होना और पुष्पों से सुसज्जित होने के लिए पूर्णतः उत्सवित होना । कर्म वह कौतुक है जिसके लिए पृथक्-पृथक् प्राणियों की संरचना हुई है । कर्म सहज ही प्राकृत को अप्राकृत से सम्बन्ध करा देता है , कर्म वह अदृश्य मार्ग है जिस पर चला जावे तो हमारे यूं चलते-चलते यह सृष्टि उत्सविता होने लगती है । परम् हेतु परमार्थ । परमार्थ हेतु प्रकट परम् का कौतुकमय उच्छलन । एक रसमय अद्वैत सम्बन्ध का पथ है कर्म । कुछ भी करना ही कर्म कह देना सुंदर नहीं होगा क्योंकि कर्म अगर स्पष्ट रूप से समझते बना तो वह पुष्प को भी मधु बना देने की गोप्य - विद्या है । कर्म का सम्बन्ध सृष्टि के ललित श्रृंगार से है ना कि कुछ भी वह कृत्य जिसमें सृष्टि को परिणाम में पीड़ा ही होगी । कर्म शब्द में कलात्मक धर्म निर्वहन भी छिपा है ... और दिव्य कर्षण भी । यह दिव्य कर्षण ही अपना कर्म अनुभव कराता है , मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों को ध्यान से देखिए वह सृष्टि के सौन्दर्य और सेवाओं में गतिबद्ध कलात्मक जीवन है । अगर मैं अपने एक कर से अपना ही दूसरा कर भंग कर दूं तो इसे कर्म नहीं कहा जा सकता है जबकि प्रचण्ड अविद्या संस्पर्श और अनुभव की अल्पज्ञता में प्राणी कर्म का अतिव साधारण अर्थ ही लेते है । कर्म ... *क* का स्वर है और इसे प्राप्त करने के लिए *ख* को अपने मौन से इष्ट के मौन की यात्रा करनी होगी एवं वह मौन भंग होना ही *क* का *ख* होना है अतः *क* में विलय होकर कर्म के आध्यात्मिक रहस्यों को अनुभव करना होगा । युगल तृषित । श्रीवृन्दावन । कर्म के परिणाम निश्चित धान (फल) प्राप्त होता है , किसान केवल अपना मात्र अन्न नहीं उगाता है ... उत्सवों की दिव्य कौतुकमयी झारी । धर्म मर्मज्ञ सिद्घजन ने ऐसे सुकृतियां खोज भी ली थी और समाज में उनका वितरण भी था जो कि परिणाम में सृष्टि को हमारे सामर्थ्य से अधिक उत्स दे सकती हो और धीरे धीरे हमने ही वह दिव्य कलाएं छोड़ दी है ।
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