संगीत और लीला
जिस शिव की महिमा को उपनिषदों के ऋषि गाते हैं, वह शिव है-
‘सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्यं मध्ये,
विश्वस्य सृष्टारमनेक रूपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं,
ज्ञात्वा शिवं शान्ति मत्यन्तमेति।
सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म, हृदय गुहरा रूप, गुह्म स्थान के भीतर स्थित है, समग्र विश्व की रचना करने वाला है, अनेक रूप धारण करने वाला है, जिसने समस्त विश्व को घेर रखा है, ऐसे शिव को जानकर ही शान्ति मिल सकती है। ऐसे शिव को कैसे जाना जाए, उस शिव को पाने का रास्ता क्या है? यही है प्रश्न जिनके उŸार आज इस पर्व पर हमें खोजने हैं। आइए, इन प्रश्नों का उŸार बाबाजी महाराज के शब्दों में ही ढूंढें। प्रतिदिन प्रार्थना के बाद \ शान्ति प्रेम, आनंद का पाठ कोई निरा पाठ ही नहीं था, वह एक दिव्य संदेश था। वह प्रभु की ओर जाने वाली पगडंडियो की तरफ इशारा था। इन्हीं तीन मार्गो पर चर्चा कर रहा हूं, इन्हीं तीन संकेतों की व्याख्या करने की चेष्टा कर रहा हूं । मैं इन तीन शब्दों के माध्यम से प्रकट करूंगा- करूणा, मैत्री और मुदिता को। प्रभु के मन्दिर का प्रथम द्वार है- करूणा। प्रभु तक पहुंचने के लिए करूणा की गहराइयों में उतरना जरूरी है। हम सब कठोरता के सख्त पत्थर बन गए हैं। आदमी करीब-करीब एक पाषण हो गया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, सारा जीवन हिंसा का जीवन है, कठोरता का जीवन है, दुःख देने एवं कांटे फैलाने का जीवन है। किसी से मिलन ऐसा मिलन है जैसे दो मुर्दे मिल रहे हों। न हाथ में उष्णता है, और न आंखों में तरलता। करूणा विदा हो गई है हमारे जीवन से। करूणा यानि जीवन्त प्रेम का प्रवाह। करूणा का अर्थ है बहता हुआ प्रेम। जिसे हम प्रेम कहते हैं वह बंधा हुआ प्रेम है, वह किसी एक दो से बंधकर बैठ जाता है। ऐसे प्रेम अकरूणापूर्ण हो जाता है। जब मैं किसी एक को प्रेम करता हूं तो अनजाने में ही मैं शेष जगत के प्रति अप्रेम से भर जाता हूं। इतने विराट जगत के प्रति जिसका कोई प्रेम नहीं, उसका एक के प्रति प्रेम कैसे हो सकता है? एक फूल खिलता है एक बगीचे में और वह फूल कहने लगे कि मेरी सुगन्ध केवल एक को ही मिलेगी और किसी को नही ंतो वह फल फूल ही नहीं रहेगा उसकी सुगन्ध-सुगन्ध ही नहीं रहेगी। करूणा का अर्थ है- समस्त के प्रति प्रेम। करूणा का अर्थ है- प्रेम कहीं बंधे नहीं, बहता रहे, प्रेम रूके नहीं, चलता ही रहे, बहता ही रहे, जहां भी कुछ रूकता है, वहीं गन्दगी शुरू हो जाती है। रूका हुआ प्रेम गन्दगी हो जाता है जिसे हम मोह कहते हैं।
जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह बहता हुआ ही जीवित रहता है। जहां भी कुछ रूका, वहीं उसका अन्त हो जाता है। पूरा संसार एक दूसरे को प्रेम करने की दुहाई देता है, पर वास्तव में प्रेम कर नहीं रहे हैं। हम सब प्रेम को अपने अपने खूंटों से कसकर बांध रहे हैं। प्रेम को बांधा कैसे जा सकता है? सूर्य को अपने आंगन में कैसे बांधा जा सकता? सूर्य आपके आंगन में आता है पर इस शर्त पर कि वह सबके आंगन में जाता है। प्रेम बांधा कि मरा। प्रेम जितना बहता है, जितनी दूर एवं अनन्त तक पहुंचता है, उतना ही गहरा होता है, उतना ही जीवित होता है। अनन्त से प्रेम करने वाला किसी को भी प्रेम देने में समर्थ होता है। क्योंकि उसका प्रेम पूर्ण होता है। जहां भी वह बरसता है, पूरा का पूरा बरसता है। प्रेम उतना ही गहरा होगा जितना विस्तीर्ण होगा। प्रेम की गहराई और विस्तार सदा समान होते हैं। जिस पेड़ की जड़े जितनी गहरी गई हैं, वह उतना ही ऊपर उठता है। ऊपर उठने के लिए जड़ों की गहराई आवश्यक है।
करूणा का अर्थ है विस्तीर्ण प्रेम। करूणा मांगती नही, देती है। हमारा तथाकथित प्रेम मांगता पहले है, देता बाद में है। हम सुनिश्चित कर लेते हैं इतना प्रेम मिलता है तो उसी अनुपात में प्रेम देते हैं। हमारा प्रेम अंहकार की खुराक है। अहंकार की मांग है जो भी बाहर से लाया जा सके, उसे भीतर ले आओ ताकि मैं मजबूत बन सकूं। रूपए आए, ज्ञान आए, प्रेम आए, सब कुछ आए, वह चिल्लाता है- लाओ, लाओ। जितना संग्रह बड़ा होता है, अहंकार उतना ही बड़ा होता चला जाता है। जिसको लाख आदमी नमस्कार करते हों, उसका अहंकार सामान्य आदमी से लाख गुना बड़ा हो जाता है। अहंकार से प्राप्त प्रेम ‘मैं’’ को सबल शक्तिशाली बनाता है। हम मांग करते हैं- बाहर से, हमारे अन्तर को बाहर से भरने की चेष्टा करते हैं जबकि जीवन की गति भीतर से बाहर की ओर है। बीज अंकुर भीतर से बाहर की तरफ फैलता है, ऐसे ही करूणा भीतर से बाहर की तरफ बहती है। अहंकार सबसे बड़ी बाधा है करूणा के मार्ग में। अहंकार की सारी चेष्टा है भीतर लाने की और भीतर कुछ भी नहीं जाता। न धन जाता है, न त्याग जाता है और न ज्ञान जाता है। करूणा भीतर से बाहर की तरफ बहती हैै। प्रेम भीतर से बाहर की तरफ बहेगा इसलिए जीवन का सूत्र है - सदा बांटना, देना, लुटाना, फैल जाना। । मृत्यु का सूत्र है- संग्रह करना, सिकुड़ जाना, बांध लेना, मां कहती है बेटा मुझे प्रेम नहीं देता, बेटा कहता है पिता मेरी फिक्र नहीं करता, पति कहता है पत्नी मुझे प्रेम नहीं देती। इस संसार में कोई किसी को प्रेम नहीं देता। प्रेम दिया नहीं जाता, प्रेम लिया जाता है। तुम्हें प्रेम देना पड़ेगा, प्रेम बांटना होगा। जो व्यक्ति जितना प्रेम बांटता है, उससे अनन्त गुना उसे प्राप्त हो जाता है। प्रेम आता है, मांगा नहीं जाता।
करूणा का अर्थ है- अपने आपको दे देना। पूरे जगत में अपने अस्तित्व को बिखेर देना। हमारे जीवन की जड़ता तभी टूट सकती है जब इस जड़ जगत को आसपास के इस जड़-जंगम को अपना माने। एक जर्मन विचारक था। वह जापान गया हुआ था। जल्दी में था, जाकर जूते उतारे, दरवाजे को धक्का दिया और भीतर पहुंचा। फकीर को नमस्कार किया और कहा ‘मैं जल्दी में हूं, आपसे कुछ पूछना है। फकीर ने कहा, ‘बातचीत बाद में होगी। पहले दरवाजे से क्षमा मांगो जो तुमने दुर्व्यवहार किया है उसके लिए जूतों से माफी मांगो, क्रोध में डूबे हुए हो।
करूणा के विकास की तीन अवस्थाएं है, एक जगत है जिसे हम जड़ कहते हैं, क्योंकि उसमें चेतना इतनी प्रसुप्त है कि जब तक हम पूर्ण गहराई में नहीं उतरेंगे, तब तक उसकी चेतना का अनुभव हमें नहीं होगा। सबसे पहले जड़ जगत के प्रति अपने प्रेम, अपनी करूणा को विकसित करना जरूरी है। जो झाड़ू को जोरों से पैरों में फेंककर चलता बनता है, वह कभी भी प्रेमिल नहीं हो सकता। फिर उसके बाद पौधों का, पशुओं का जगत है जो जीवन्त तो है, पर विवेक शून्य है। उस जगत के प्रति करूणापूर्ण होना जरूरी है। फिर मनुष्यों का जगत है। जो जड़ को प्रेम दे सकेगा, जो पेड़-पौधों व पशुओं को प्रेम दे सकेगा, वह मनुष्य को भी प्रेम दे सकेगा। महापुरूषों की जीवनियां इस बात की प्रमाण हैं कि किस तरह वे लोग जड़ जगत व पशु पक्षियों व पौधों से प्रेम करते थे। बाबाजी महाराज ने सर्प जैसे विषैले जीव तक को भी कभी मारने नहीं दिया, उसे पकड़कर बाहर फिंकवा देते थे।
एक निर्जन रास्ते पर फूल खिला है। रास्ते से कोई निकले या न निकले, फूल अपनी सुगन्ध बिखेरता रहेगा। फूल को परवाह नहीं है कि कौन आ रहा है, कौन नहीं निकला। फूल के तो प्राणों में सुगन्ध भरा है, वह बंटती चली जा रही है। करूणा इसी तरह की बात है। करूणा एक भावदशा है। अकेला व्यक्ति करूणापूर्ण हो सकता है, उसे दूसरे की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रेम ही जब विकसित होकर विराट हो जाता है और सम्बन्धों के पार चला जाता है तो करूणा हो जाता है। करूणा प्रेम की परिपूर्णता है। जब प्रेम दो व्यक्तियों के बीच का सम्बन्ध न रहकर एक और अनन्त के बीच हो जाता है तो वह करूणा बन जाता है। प्रेम पहला चरण है, करूणा अन्तिम मंजिल है। सत्यजीत "तृषित"
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