शिव पर कमल क्युं

क्या शिव को कमल चढा सकते है ?

शिव का रहस्य ही ऐसा है ...शिव चाहते त्याज्य से त्याज्य अपना लें ...
सबके विष को पी जायें ...पर सच्चा प्रेमी हुआ वो जानेगा
शिव को वो सब प्रिय है जो हरि को ! सो राम ने अर्चन किया !
अर्चन उस भाव या उपचार द्रव्य से होता है जो आपके पास है | आपके पास असामर्थ्य है तो ही ! विषप्राय द्रव्य निवेदन करने चाहिये ! वो संकेत होगा कि जीवन में  विष (कष्ट) असहनिय हो रहा है भगवन् ! आप ही मेरे दारुण्य को हर लें ! चुंकि वें शिव है सो हर लेते है ! शिव त्याज्य या विषाक्त के अर्पण पर भी अमृत फल देते है ... तभी वें शिव है ! वेद शिव को ही ईश कहता है ... कारण वेद ही स्वयं नारायण का विग्रह है |वेद नारायण है तो अपना ईश्वर शिव को ही कहेगा ...
राम जिस समय कमल से अर्चन कियें तब राम विपत्तियों से घिरे प्रतित होते है तब भी वें शिव को कमल अर्पण किये ना ही विषाक्त ! वें अपने कष्ट को हरने की प्रार्थना ना किये | सृष्टि में नारायण से कमल हुआ | कमल पर ब्रह्मा हुये ! फिर ब्रह्मा ने सारी सृष्टि की ! राम की अपनी कृति कमल ही है सो एक कारण यें भी है यहाँ ...
एक भाव यें भी है कि चुंकि हम सेवा दो भाव से कर सकते है ... एक प्रभु या अतिथि के मन अनुसार ! या अपने सामर्थ्य और मन अनुरूप ! अगर प्रेम है तो दोनों में कोई भी भाव हो ग्राह्य होगा | जैसे शबरी ने अपने मन अनुरूप सेवा में बैर खिलायें | शिव साहित्य (पुजन सामग्री) में बहुत से घटक स्वयं शिवप्रेमी ही जोडे है जैसे गन्ने का रस ! नारायण के पास ऐश्वर्य है पर भोक्ता वें शिव को मानते है और शिव परम् ऐश्वर्यमय है पर हर हरि के एकात्म होने पर भाव विवर्त हुआ | हर का कृष्ण रंग हरि ने लिया और हरि का श्वेत शिवमय हुआ ! संहारात्मक शिव कृष्ण वर्ण है | और सृजनात्मक - नियंतात्मक नारायण श्वेत | पर प्रेम में परावर्तित हुआ ! महा ऐश्वर्य मय नारायण पारलौकिक सुख देने लगे जो कि मृत्यु उपरांत होगा जब्कि मृत्यु - काल के अधिष्ठात्र इहलौक भी यानि जीवन में रस संचार करने लगे | तंत्रोक्त विधि में शिव सेवा में त्याज्य पदार्थ भी ग्राह्य है जैसे रोली | रोली का अर्थ श्री लक्ष्मी से है | और शिव उपासना निश्चित् ऐश्वर्यदायी है ... रुद्राष्टाध्यायी से अभिषेक में भी तीनों ताप की निवृति होती है जैसे आध्यात्मिक उन्नति शिव से सिद्ध है भौतिक भी और देह गत् भी | शिव के पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय) नारायण रूप ही है ,दक्षिण भारत भी मानता है इस तथ्य को ... और लक्ष्मी पुत्र कर्दम शिव के नामों में गिना जाता है | वस्तुत: तुलसी दास जी ने लिखा कि राम कह रहे है मुझमें शिव में तनिक भेद नहीं | भेद करने वाले का पतन होता है और राम अनुरागी को शिवतत्व और शिव अनुरागी को रामतत्व मिलता है |  सो तंत्र भेद नहीं करता और समस्त नारायण सेवा के घटक भी शिवसेवा में होते है | नारायण परशुराम हो कर शिव उपासक है और शिव हनुमान भाव से राम के | हनुमान वैष्णवों के आधार है | पद्धति भी वैष्णव है |
नारायण बीज रूपी ब्रह्म होते है लक्ष्मी प्रकृति रूपा भुमि तो शिव कर्म रूपी बैल हो कर बीज से सृजन करते है | प्रकृति पुरुष के मिलन में व्यय शक्ति (तेज) भी शिववत् है | जितना तेज का उपादान हो सृजन उत्कृष्ट होगा |
रही बात सेवा की यहाँ विस्तार से कभी और पर मान लें पुष्प माला आपने खरीद कर प्रभु सेवा की तो सेवा अधुरी है … कमल की माला बृज में १५० रु. तक आ जाती है | उतने ही कमल उगा कर माला बना कर फिर अर्पण करें तब भाव सटीक होगा | मोगरे का फूल बंगला खरीद कर बनवाना और नित स्व कर से पल्लवित पादप से लिये पुष्प की एक माला स्वयं बनी हुई फूल बंगले वाला रस दे देगी ! धन ने सेवा को हर लिया ! सेवा में भी धन का मद है | सेवा पुष्प या फल उगा कर की जायें तो अलग ही रस है | यूं तो कमल जो दुर्लभ है वें भी नोट के अभिमान से खरीद लिये जाते है |
फुलवारी तैयार की सेवा में प्रभु पहले दिन जब पौधा लगाया तब से ही रस लेते है | प्रभु के लिये जीव के धन का नहीं समय का महत्व है | समय धन से अधिक मुल्यवान है | धन तो पूरा ही ईश्वर का है जो कि जीव बिन आज्ञा अपव्यय करता है पर समय मिल गया वो भी सेवा में लगे तब प्रेम हो पाता है !
गौ पालन फिर प्राप्त फलरुपी घृत से यज्ञ ! धान-तिल आदि हविष्य की खेती फिर प्राप्त फल रुपी अन्न जडी बुटि आदि से देव तृप्ति व भुमंडल तृप्ति और शुद्धि के भाव से किये हवन का अलग रस होता था ...
चार पाँच घंटे के हवन हेतु महिनों का परिश्रम ! कर्म फल का शुद्ध अर्पण ही सेवा रहा है | तब प्राप्तियाँ भी दिव्य थी | आज हवन यज्ञ आदि धनके जोर से है , कर्म के नहीं ! कर्म हमारा खेती रहा है सो कर्मकाण्ड उसके ईर्दगिर्द ही है ... उत्सव भी ! अब समझ नहीं आता सो सब बेकार है ... जब तक भुमि में स्वर्ण है तब तक नोट का जोर ! स्वर्ण जब तक है जब तक प्राणी जगत जीव जगत् और पारलौकिक जगत् तृप्त !
सेवा अगर भौतिक न हो कर मानसिक हो तो परम् है पर भावात्मक विस्तार से हो और ऐसी बनावटी भी ना हो कि प्रभु भावुक होने की जगह हँसते ही रहे ...
मानसिक सेवा में जीव उत्कृष्ट सोचता हुआ मणियाँ स्वर्ण आदि से करता है | प्रभु जानते है कि जो दिया वो तुने अपना माना ... अब तेरा लोभ है कि वैभव होता तो आपकी भी बडी वैभवमयी सेवा करता ! जब्कि वर्तमान प्राप्त में भी जीव दुषित फल सब्जी आदि अर्पण करता है | पहले भी कहा है फिर करता हूँ मानव रबडी का भोग लगाता हे कारण खुद को खानी है प्रभु खाते तो गुड-पताशा ही होता !!! सत्यजीत "तृषित"
समय पाकर शिवतत्व की चर्चा भगवत् कृपा से सरल शब्दों में करने का मन है !!
आशिष की आकांशा में ... ... ...

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