कथा व्यास की शुन्यता की अनिवार्यता
कारण ...
कारण ना होता तो मानव ही क्युं होता ! कारण से ही मानव देह मिली आत्मा को !
कारण ना हो तो मानव ना हो , जीव की असंतुष्टी ही मानव देह तक लाती है |
मानव अहम् की विस्मृति कर सकें | कैसे भी ! तो सामान्य मानस वर्ग विक्षिप्त (पागल) ही मानता है | अहम् रहित होना ही विकार सदृश्य है ! मानव को अहंकार का उपदेश ही जहाँ से हुआ वें स्वयं डुबे है !! सर्वत्र प्रभु व्याप्त के नारे है |
समानता ... समत्व की बातें है पर केवल बातें ... मानने वाला समान रहेगा ... हजारों में कोई एक मंचासीन कैसे होगा |
जो स्वयं को ऊंचा मानेगा | श्रेष्ठ समझेगा वहीं स्वयं हेतु भव्य सिंहासन चाहेगा ... सिद्ध है जीवमात्र के अन्त: निहित् परम ईश्वर के दर्शन ना हुये ! वरन् सैकडों परमेश्वर नीचे और एक ऊपर क्युं | दायित्व है हरि गुणगान का तो यें तो प्रभु कृपा है ...
भगवत् अनुराग में मिलें आनन्द के बाद मौन वृति हो !! सदैव रहे ... यही भाव ...
आनन्द के संग आई करुणा उपदेश चाहती है ! आनन्द तो स्वार्थि हो मौन ही रहना चाहता है ... करुणा अहम् रहित है उसे मैं की दीवार नहीं दिखती सो बह जाना चाहती है | परम् सुख , परम्आनन्द रस सर्वत्र महके , सत्य के दर्शन का प्रयास हो !
सो करुणा वश उपदेश होता है ...
अपने ज्ञान के प्रदर्शन में हुआ तो शुरुआत ही गलत है ... जहाँ नींव के पत्थर कारीगर सब कमजोर वहाँ ईमारत बन भी गई तो ध्वस्त होगी !
कभी ऐसा हुआ कि वाचक ने जानना चाहा हो कि सच में कितनों को भगवत् सन्निधि - साक्षात्कार हो रहा है ... कभी पग वापिस आयें कि असर हुआ अथवा प्रयास करने का तरिका गलत था ...
सच्चा भगवत् सत्संग कभी विफल नहीं होता ! प्रचार - प्रसार - संचय - मान पद - गरिमा सब से ऊपर उठा भाव ही काम करेगा ... शेष केवल विज्ञापन !
सब जानते है ... स्वर ऊपर उठकर आकाश में जाता है ...
आवाज ऊपर से होगी तो नीचे गिराई भी जायें यंत्रों से तुरंत ऊपर उठ जायेगी , गेंद की तरह ! स्वर नीचे भुमि में नहीं जाता ...
स्वर आकाश में व्याप्त ना होकर भुमि गुरुत्वाकर्षण से खेंचती तो वहीं रहता ... चेतन में उतरता !!
यहाँ तो मंच सज्जा की होड है ... जिस देश के कई दायित्व हो वहां विद्वान जन व्यर्थ धनराशि लगायें ! भगवत् भावना यहाँ है ही नहीं | भगवत् भावना का आवरण मात्र है ...
भगवत् भावना सच्ची होती तो लौटता हर व्यक्ति साक्षात्कार की अनुभुति से लौटता !!
नीचे सुन रहे सब लोग अगर नारायण वत् है तो वक्ता उस भाव से कहीं दर्शन करते ना दिखे | कहाँ जा रहा है सर्वत्र ईश्वर है ...
प्रत्येक कण में ... माना नहीं जा रहा | कथनी - करनी में भेद |
इस जीव का उद्देश्य तो निश्चल भगवत् प्रेम है ... एक बार सोशल साइट पर , श्रेष्ठतम् परम् प्राप्त ऐसे मैलों के वक्ता ने मेरे द्वारा भेजें भाव का खंडन किया ! जो कि गुढ भक्त के भाव थे यहाँ केवल प्रस्तुत तृषित से हुआ , बहुत बार माध्यम होने पर खंडन होता है |
भयानक कटाक्ष ! अश्रु धारा बह गई ! विनती में प्रत्युत्तर दिया कि ... मेरे हेतु आप सदा प्रभु ही रहे , आपने कहा अर्थात् प्रभु ने कहा बस मुझे इतना बतायें क्या राम मुझमें नहीं ! कैसे सत्यापित हो कि वें मेरे भी है ... कृप्या प्रभु से वार्ता में आप उनसे ही जान लें ... क्या वें मेरे है अथवा नहीं ... उनका उत्तर ना आया ...
कई बार नाम ना होने से अपने ही पंथ के भाव तक का खंडन कर डालते है ... मेरे ऐसे भगवत् व्याख्याता जन !
विचारक - उपदेश का आदेश पाये मानस में भगवत् भाव हो ...
और प्रति दर्शन प्रभु दर्शन के भाव से हो तो वें समाधान कर सकते है !
जहाँ स्वत: श्रेष्ट होने की सिद्धता दर्शानी हो तो गरिमा का विस्तार कर पाखंड के साम्राज्य खडे हो सकते है ...
भगवत् नाम कोई नारा नहीं ... रस है ... रस के लिये पात्र चाहिये ! पात्र को गरिमा से पुर्ण नहीं भगवत रस से पुर्ण होना चाहिये ... ...
यहाँ वक्ता को सर्वत्र प्रभु दर्शन भले ना हो , जनमानस को उनमें होते है ... ऐसे मानस को नमन | जनमानस को एक में दिखते वहीं ईश्वर सर्वत्र भी देखने चाहिये | और अनुसरण वहीं करना चाहिये जहाँ भगवत् सारल्य भावरस में प्रस्फुटित हो रहे हो ... वरन् ज़र्रा - ज़र्रा उसी का ऩुर है ... और कुछ नहीं !
पुन: विनति ! भगवत् कथा का अवसर मिलें तो "मैं "आवरण नहीं रस में गोता लगा सीधे आये ..
यहाँ कैसा मंच हो ... भाव हो यें ना लिखा ! प्रेमी स्वयं प्रयास कर सकते है | और जिनकी आजीविका है उन्हें मानना नहीं होगा ... क्षमस्व परमेश्वर !!! सत्यजीत "तृषित"
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