श्री राधा कदा करिष्यसीह मां कृपा

श्री राधा
कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्ष भाजनम्

कैसै हैं श्री प्रिया के श्यामसुन्दर ॥।हमारे भी कहा जा सकता था पर हमारे श्यामसुन्दर को तो हम अपने प्रेम रहित भाव रिक्त हृदय से ही देखते न तो वे हमें वैसै कैसै दीखेंगे जैसै वे वास्तव में हैं । वे वास्तव में कैसै हैं ये तो केवल श्री प्रिया ही जानतीं ॥ उन्हीं के आश्रय से यत्किंचित भाव हृदय भाव नेत्रों से उन्हें निरख पावें तो कुछ हृदय में उतरे कि कैसै हैं वे ॥ श्री प्रिया के हृदय की प्राणों की परम निधि हैं वे ॥ कितने सुकोमल कितने सुकुमार कितने निर्दोष ॥ हम जीवों के पास तो ऐसी कोई वस्तु ही नहीं जिससे हम उस लावण्य सार सिंधु को स्पर्श भी कर पावे ॥ केवल श्री किशोरी ही जीव पर अनुग्रह करें तो वह भाव प्राप्त हो पाता जो श्यामसुन्दर को वास्तव में निरखने की भी पात्रता पाता ॥ तब अनुभव होता आह कितने सुकोमल हैं ये नवघनसुंदर ,स्पर्श को भी भय लागे कि नेक सो कष्ट न हो जावे इन प्राण रत्न  को ॥ ये तो अतिशय भोले हैं कि किसी के भी पास चले जाते हैं देखते ही नहीं कि क्या इन्हें सहेज पाने की पात्रता है भी या नहीं फिर कौन रखता इनका ध्यान ॥ इनका ध्यान वहीं रखती जिनकी जीवन प्राण महामणि हैं ये भुवनसुंदर ॥।इसी से तो समस्त जीवों को प्रेम दान करने हेतु तत्पर वे प्रेम की अधिष्ठात्री  श्री राधिका ॥ कि जीव जो सदा से विरहित अपने प्यारे से ,वह पा सके सहेज सके संभाल सके उन कोटि कोटि प्राण कोमल नीलमणि को ॥ संसार में भी एक तुच्छ से रत्न को सहेजने हेतु डिबिया में मखमल की परत लगायी जाती कि रत्न पर कोई खरोंच न पड जावे तो जो महा लावण्य को सार है किशोरी के अनन्त कोटि महाप्राणों की कोर हैं उनकी जीवन निधि हैं उनके हृदय को सुकोमल पुष्प है उनके सम्पूर्ण आत्म का सारभूत मुक्ता है उसे किसी को यूं ही दे देवेंगी क्या वे ॥ पर देती वे सभी कृष्ण आकांक्षी जीवों को देती पर पहले देती पात्रता कि वे हृदय में सहेज पावें उनकी हृदयमणि को ॥ तो पात्रता क्या है वे स्वयं ही तो पात्रता हैं ॥ हाँ वे प्रेम स्वरूपिणी महाभावसिंधु प्रेमोदधि श्री राधिका ही तो भाव को दान कर अर्थात् स्वयं का दान कर निज प्रियतम के स्वागत को पधारतीं ॥ वे ही तो जीव हृदय में स्वयं प्रकट होकर अपने प्यारे को प्रेम से सहेजती हैं ॥ जीव कहाँ प्रेम कर पाता है प्रेम तो वही करतीं हैं जो प्रेम स्वरूप हैं ॥ यही तो परम अनुग्रह है उन परम करुणामयी का हम प्रेम विहीन जीवों पर कि हमारे हृदयों में अपने अंश से प्रकट हो हमें हमारे जनम जनम के परम प्रेमास्पद से हमारा शाश्वत मिलन सौभाग्य प्रदान करतीं हैं ॥ वे अपार कृपा स्वरूपिणी सदा कृपा करें हम पर कि पात्रता प्रदान करें हमें कृष्ण प्राप्ति की ॥
ये तो सदा रहता है वां में । ये हृदय एक मंजूषा है जिसमें अतिशय कोमल सुकुमार मेरे प्रियतम श्यामसुन्दर संजो कर रहे है ॥ऐसा रत्न जो बाहर से लाकर नहीं पधराया वरन हृदय सार रस से ही बनो है तो अनन्य ममत्व उनमें ॥ जिस प्रकार सीपी के हृदय रस  से मोती बने है और वही उसका प्राण भी वैसै ही प्रिया हृदय सार तत्व से मनमोहन ॥।
।। जयजय श्यामाश्याम जी ।।

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