अहो मेरी स्वामिनी
*अहो मेरी स्वामिनी*
अहो! इस श्रीवृन्दावन का कोई स्थल कोटि-2 चन्दन-वनों को पराजित करने वाला है एवं किसी-किसी स्थल ने कोटि-कोटि कस्तूरी की राशियों को भी जीत लिया है तथा कोई स्थान कर्पूर के प्रवाह से उत्तम सौरभमय हो रहा है, कहीं कुकुम की पंक का लेप हो है, जो महा आनन्दकारी है। कहीं-कहीं तो अगरु को लज्जित करने वाली महा अद्भुत अपूर्व सुगन्ध छा रही है।।
श्रीवृन्दावन में दिन रात अनेक प्रकार के पुष्पों की सुगन्धि इधर-उधर छा रही है। कहीं अनेक प्रकार के मकरन्द प्रवाहित हो रहे है एवं अनेक प्रकार के सुन्दर स्वादयुक्त भोज्य पदार्थ उपस्थित हैं। कहीं मधुर रसपूर्ण अनेक फलों से लदे हुए वृक्ष शोभायमान है ओैर कोइ स्थान श्रीराधामाधवस के क्रीड़ा करते समय टूटे हुए मुक्ताहारादि तथा माला- मेखलादि से परिशोभित हो रहे हैं।।
श्रीराधाकुण्ड के निकुट अन्तरंग सुन्दर रत्नमण्डप में सखिवृन्द के साथ श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीश्यामसुन्दर के सहित गान-कौतुक कर रही हैं-ऐसी छवि मेरे चित्त में स्फुरित हो।।
श्रीराधाजी सब सखियों के साथ मिल कर नागरमणि (श्रीश्यामसुन्दर) के शरीर पर अपने दोनों कर-कमलों से जब अनेक जल सिंचन करने लगीं, तब श्रीश्यामसुन्दर अपने मुख-चन्द्र को झुकाकर ‘‘और नहीं, और नहीं, मैं हार मानता हूँ’’ ऐसा कहने लगे। श्रीश्यामसुन्दर केये अमृतमय वचन सुनकर श्रीराधाजी जल फैंकना बन्द कर क्या अद्भुत हँसी।।
थोड़े और अति मनोहर निकुंजों से परिवेष्टित, छोटे तथा विस्तीर्ण सुन्दर वृक्षों के फूलों से सुसज्जित एवं कल्पवृक्षों से मण्डित इस श्रीवृन्दावन में पुष्प-भूषणों से भषित होकर रसमूर्ति श्रीयुगलकिशोर विचित्र-विचित्र विहार करते हैं।।
परस्पर नैनों के कटाक्षों की चमत्कारिता में मृदु मधुर मुसक्यान के सहित अनेक छल पूर्वक एक दूसरे के पुलकित विग्रह को स्पर्श करने के लिए तथा दूसरे की कथामृत-रस-भरी नदी के प्रवाह द्वारा उमड़ी हुई श्रीराधाकृष्ण की परस्पर महारति जय युक्त हो।।
अत्यन्त महाश्चर्य मधुर स्फूर्ति प्राप्त लीला-रूप-सौन्दर्य-सुरत-वैदग्धलहरीयुक्त श्रीराधा ब्रज से श्रीवृन्दावन आती हैं- एवं श्रीराधाकृण्ड स्थलि की शत-शत गुण-शोभा एवं चमत्कारिता आदि का प्रकाश करती है, श्रीश्यामसुन्दर के सहित वह मेरे हृदय मे स्फुरित हों।।
।। जयजय श्यामाश्याम जी ।।
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