सखी कृपा ... तृषित

सहज प्रेम सम्बन्ध में नवीनता है । जैसे नव वधु को सभी बड़े लाड से मिलते है , सभी पारिवारिक जन स्वागत आतुर भी होते है निज निवास पर ।
जैसे नव शिशु के माता पिता व्यवहारिक कुशल है तो शिशु के प्रति सभी का कोमल भाव रहता ही है । कोई कर्म क्रिया उससे हुई नहीँ , सभी और से प्रेम मिलने लगता है ।
सम्बन्धब की महक । जो सभी और से कृपा बन बहती है । हमें जाना है युगल की ओर , परन्तु सम्बन्ध सहज हो रहा है , स्वीकार हो गया है तो इस पथ पर जहाँ भी वह है वहीँ इतना प्रेम वर्षण होता ही क्या कहा जावे ।
रसिक जन मिलते है , आंतरिक भाव अनुरूप सहजता से हृदय पुलकित कर जाते है । श्री वृन्दावन तो जैसे अपनी गोद से उतरने ही ना देता हो । बड़ा लाड करता है । स्पष्ट श्री धाम का प्रेम बहता दिखने लगता है । मै कोई साधक नहीँ हूँ , अतः मेरे पथ पर रस कृपा वर्षण एक दीक्षा से हुआ ही नहीँ , समुद्र में डूबी मछली की तरह मै कृपा सुधा में डूबा स्वतः आगे बह रही हूँ । मेरे सद्गुरु वर जु , जिनकी एक कृपा कोर समस्त विषादों का क्षण भर में हरण कर लेती है  , जिनकी आंतरिक स्वीकृति और जिनका अति कोमल हृदय ... जो इतना कोमल की वर्तमान कलि का स्मरण भी उस वायुमंडल में छूट जाता है जहां से उनकी श्वासित कृपा रूपी समीर छू रही हो।
अब भी रस पथ पर रसिकों की भावनाओं में गोते नहीँ लगे है । परन्तु जब भी कृपा कर रस पथ में रसिक वाणियों की कृपा होती है तब का क्षण युगल छाँव का आनन्द ।
सखी कृपा ... अर्थात स्वामी जु की निज कृपा , इस कृपा से ही प्राप्त नाम अनुभूति और रस सौरभ ... रस लहरियाँ ... !!
श्री युगल , श्रीवृन्दावन , श्री राजरानी , श्री यमुना जु सदा कृपा करते है । यह सब कृपा व्याकुलता के अनुरूप रस झारियाँ प्रकट करने लगती है । यहाँ इन सबकी कृपा से जो जो जीवन में घटता है वह ... एक भौतिकी संसारी को उसके रस सम्बंध की ओर लें जाता है । पथ स्व से नित्य पथ रूप खुलने लगता है ... श्रीप्रियालाल ही समस्त उपाधियों का हरण करते है । परंतु उनकी निज भावना तब भी प्रकाशित नही होती , न ही उनके प्रति सेवातुरता प्रकट होती है ... वह प्रकट होती है सखी कृपा से । रस ... रसिक सन्त कृपा कर आपका भाव परिणय स्वीकार कर देते है अर्थात गूढ निकुंज पट खोल देते है ... कहते है यह नाम धरो और भीतर सेवा हो जाओ अपने प्राण धन सर्वस्व युगल निधि की ।
वहाँ युगल रसभोग में , रससेवा की निर्मल भावना अगर बहने लगे तो यह सखी कृपा है । वरन भोग निवृत्त हुए बिन सेवा रहस्य खुलते नहीँ । सेवा हेतु हृदय बहता रहे ... अब तक यमुना जु , यह लता-वीथि सब बाह्य ही प्रकट होती थी परन्तु सखी कृपा से प्राप्त सखी स्वरूप ही वह स्वरूप है जिसमें यह सब रस माधुर्य की लहर , वर्षा ... शीतलता ... रसमयी जड़ता में थिर लताएं सब भीतर है । वही श्री वृंदावन रूपी देह में प्रकाशित है और युगल निभृत हृदय कुञ्ज में रसविश्राम का भोग पा रहे है । अपने ही हृदय की निभृत सेज पर विराजे रस-भाव के यह महास्वरूप और इन्हें निजता देने हेतु स्व हृदय कुञ्ज में न प्रवेश की उनकी भावना ... ! कभी निभृत लीला में रस सेवा को भीतर भी सुख देने हेतु महा सहज मंजरी रूप अपनी ही सेवा लालसा से रस की नित्य गाढ़ स्थितियोँ में सेवा प्रवेश (निभृत प्रवेश , मात्र सेवा प्रवेश है ... वहाँ प्रवेश का बाह्य कोई सम्बन्ध होता नहीँ ... अर्थात यह अत्यन्त निज सेवा है , साधक का निज हृदय भी उस सेवा को व्यवहार जगत में खोल नहीँ सकता । अति सेवातुर सहज पथिक सखी कृपा से सेवायत है , मात्र रस में युगल प्यारों को कोई श्रम और आवश्यक सेवा मिलती रहें, वहाँ वही सेवायत है जो अपने होने और अपनी सेवा को भी युगल सुख में घोल युगल हृदय को विश्राम में बाधक न हो , उनकी निजता खण्डित न हो ... )
सखी कृपा , सम्पूर्ण रस पथ पर सार रूप में प्रकट होता है । हमें न श्यामा होना है , न श्यामसुन्दर के निज रस में आनन्द ही मिलता है । हमारी भावना का सार और सम्पूर्णता खिलती है सखी स्पर्श से । रसिक जब तक मैंने यहाँ लिखा बाह्य कृपा के अनुरूप । सखी कृपा भावना और नित्य विहार में ही होगी , ऐसा नहीँ कि सखी कृपा प्राकृत धरा पर खुलेगी । रसिक स्पर्श , रसिक कृपा होने पर भी उन रसिक की भावना ... उनकी सेवा , स्पर्शित नहीँ होती है । इसके लिये गाढ़ प्राकृत विराम और मात्र रस प्रवेश की लालसा चाहिये ।
जब हरिदासी , हरिवंश , पुष्टि , गौड़ीय रूप कृपा खुलती है ... तब कृपा अपने पट खोलने लगती है ...
परन्तु हरिदासी रस में सखी जु का सँग और कृपा हो अर्थात श्री ललिता जु का वह कृपा निधि हमारे लिये । गौड़ीय रस में रूप मंजरी का सँग और अनुगत भाव मिले तब कृपा निधि , ऐसे ही अन्य पथ में ...  अर्थात रस पथ सभाव अपने नित्य स्वरूप सँग प्रकट हो जावें ... धरा की यात्रा का यह पथ नहीँ । जिस रस बहाव पर ले जाने के लिये सम्बंधित हुआ वहाँ उनका मूल स्वरूप प्रकटवत कृपा करें । सखी कृपा ही धरा पर नहीँ होती , सखी स्वरूप प्यारी-प्यारे और उनके निज कुँजन से बाहर अन्यत्र है भी नहीँ । प्राकृत जीव को रस व्याकुलता नहीँ तो नित्य सखी अपने भाव का स्पर्श नहीँ होने देती है , हाँ सखी की भावना सौरभ बन आह्लादित कर सकती है । जिसे हम रसिक कृपा कहें ।
तो मेरा रस सम्बन्ध जिन्होंने कृपा कर ... सखी कृपा । वह कृपा करती है तो ही भावना नित्य सेवा रूप बहने लगती है । श्री हरिदास । जयजय श्यामाश्याम । तृषित

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