रूदन 2 , तृषित

रूदन 2

रूदन की प्रथम मूल्यता यह है ईश्वर रो नहीं पाते , केवल गौरांग अवतार श्री चैतन्य महाप्रभु होकर ही यह गम्भीर रस पान पीते है । युग लगते उन्हें अपनी व्याकुलता को जीने में । उसमें भी हम नहीं मानते कि वह वही है ... चैतन्य । चेतन प्रभु अपूर्ण है क्योंकि अपनी आंतरिक प्रीत को कह नही सकते । और जीव बिन उनके कहे कभी समझ नही पाता उसे यही लगता सदा ... मैं प्रेमी । प्रेमाकुंरण की अवस्था है जीवन का अंतर्मुखी होना । देखिये सरल शब्द इसलिये लिख रहा कि सामान्य हम समझे इन सबको । मुझे सिद्धों की सभा मे तनिक दिलचस्पी नहीं ... वहाँ जो मिलता जीवन और श्रीहरि से दूर करता । मुझे सन्तप्त जीव की जीवन पिपासा में रुचि है , अगर मेरे इतना कहने - लिखने पर किसी सरल हृदय में प्रेमांकुरण अनुभव न हो तो व्यर्थ यह सेवा । अतः सरल भाषा मे कोशिश यहाँ ... जीव चेतन है पर चैतन्य नहीं । इस चैतन्य अनुभव के लिये उसे तन्हाई में गिरधर जो भाग रहे ब्रज वीथियों में उनके प्रतिबिम्ब का पीछा करना होगा । ... क्यों ?
क्योंकि कोई नहीं ...कहीं भी हमारा । बाहर का हर नाता मात्र स्वार्थ है ... यह हम सब जानते है । तो कौन है जिससे नाता भी हो और उनमें स्वार्थ का अणु भी ना हो तो वह यह मनहर श्रीप्रभु ही है । ... हम आज रावण , कंस , शिशुपाल हो रहें है पर भीतर के राम-कृष्ण ने कभी भी कहा कि कर क्या रहें हम ...? उनमें स्वार्थ नहीं , प्रेम है परंतु जीव की गति विपरीत वो होते भी नहीं । तब मेरा कौन ... किसका मैं यह उत्तर मिलते तन्हाई में अश्रुओं को भाव दर्शन बना श्रीप्रभु को पुकारने पर । अश्रु को ही सभी पथ शक्ति बनाते है ... अग्नि तत्व के अधिष्ठाता प्रभु बड़े शीतल और सुकोमल है  ... और जीव नित्य अग्नि में भस्मीभूत सन्तप्त व्याकुल अवस्था का चेतन अणु । अतः एकांत को शक्ति बना कर अन्वेषण करना हमें भीतर अपने प्राणों के प्रियतम का ।
चलिये तन्हां होवे ...
प्राण प्यारे कब जीवन दोगे , छब नहीं निरख सकती यह पगली तो अपनी ...छाया भी ना दोंगे कभी । ... तुम्हें नहीं निरख सकती , मात्र स्मृति , मात्र तस्वीर तुम्हारे उन्माद को समेटी ... क्या हृदय पर तस्वीर बन भी न आओगे ।
मुझे पता है प्रियतम तुम क्यों रुष्ट हो ... क्योंकि मैंने कभी प्रेम अनुभव ही ना किया । सारा जीवन पतझड़ कर दिया । तुम नित्य सवेरे फूलों से खिलते गए , और हर सांझ मैं झरे सुमनों पर बैठ अकेला मान खुद को रोती भी रही । परन्तु कभी मुझमें प्रीत न अँकुरित हुई । क्योंकि मेरा तो सारा खेल निज वासना का रहा सदा । प्रेम तो प्रियतम सेवासुख झरने में भीगने की अवस्था है ।
पर , शायद कभी तुम ही करुणा कर ले जाओगे प्यारे जु ... मेरे हृदय को छू कर उसे कुसुम कर ले जाओगे बहारों में ...कुँजन में । यह स्वप्न , होगा जब मुझमे तुम्हारा ...मात्र तुम्हारा संस्पर्श होगा  हिय-पिय ... !!
...तब मुझमें में भी श्रीप्रियाजु के प्रेमाणु से झरते भाव कुसुम रजातुर होंगे । कभी मुझे तुम्हारी हृदय पर छाया भी दिखी ना तो ... भावना खिलेगी जो तुम्हारे सुख की निधि स्वरूपा श्रीप्रियाजु का एक रज कण प्रसादी होगी । क्या तुम्हें सुख होगा ... क्यों ना मै तुम्हारे सुख की हो जाऊँ ... श्रीप्रियाजु की । अहा उनका होने के भाव मात्र में मुझमें कोमल पंखुरियाँ खिलने लगती । ...हां मैं उनकी एक मंजरी... । श्रृंगार करती मनहर अब तुम्हारी प्रिया का ।  ... मैं उनकी मंजरी । हाँ केवल उनकी मंजरी । तुम्हारा भी स्पर्श मेरे लिये अपराध अब ... !!! परमोच्च सुख ... युगल सेवा ।
... लो छूट गया एकांत , हो गए हम माटी माटी  ...फूल खो गए ...कभी तो यह , जीवन होगा । जो अभी आकांक्षा बन नयनों के अश्रुओं को हृदय में खेंच रहा ।
... कभी तो पियप्यारी की ही निरखन रह जाऊँगी ... कभी तो . कभी तो जीवन जी सकूँगी । या सदा तृषित हो मरने को झरूँगी ...क्या कभी प्रेम का अणु संस्पर्श न होगा । क्या कभी वो हिय फूल जीवन निधिकुंज ना होंगे । ...सेवाकुंज आह...हृदय में सेवा कुँज न खुली अभी मोरे । पतझड़ के सूखे पात हो अब फुलनियों की सेवा ...छु लो ना मेरे हृदय को तुम ही श्रीवृन्दावन ..श्रीवृन्दावन  ...श्रीवृन्दावन ।।। तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम ।।

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