भावों को कितना कह सकते ... तृषित
भावों को कितना कह सकते ... ???
भावुक अगर चाहें कि अपने आसपास के परिवेश को भी वह भाव सुगन्ध मिलें तो वह कितना भाव कह सकता ।
इसके लिये आपको कह कर देखना होगा... । मनुष्य... स्वभाविक नहीं है , प्रतिक्रिया भर है । आपकी भाव स्थिति अति गाढ़ हो पर सन्मुख वहाँ लालसा न हो तो वह स्थिति चाह कर भी खुल नही सकती ।
सम भाव स्थितियों में वह स्थिति बिन कहे समझ आ जाती ।
वही अपने से गहन भाव स्थितियों में आपकी लालसा का पात्र और गहरा होता है उनकी भाव वर्षा से ।
गहनतम भावुक भी जगत के सन्मुख चाह कर भी आंतरिक भाव नहीं कह पाते । यहाँ लेन-देन दोनों ओर से हो ।
यदि कोई भावुक किन्हीं गहन भावुक से भाव गाढ़ता लेना चाहें तो उन्हें बिन कहे , उनके निरन्तर चिंतन से वह उस स्थिति को अनुभव कर सकता है । यह कठिन है इसका उदाहरण एकलव्य है । और सेवा द्वारा भी वह उनकी भाव कृपा में भीग सकता है... जैसे आरुणि और शिवाजी ।
एक है देने की लालसा... अर्थात करुणा ।
एक है लेने की लालसा... अर्थात दैन्य ।
करुणा निर्मलतम है तो असुर-दानव में भी दैन्यता हो उठेगी...उदाहरण बलि जो वामन की करूण छबि से द्रवीभूत हो चुके... देवताओं के प्रति वैमनस्य भी वहाँ न रहा ।
एक है दैन्य की निर्मलता इसके भी कई उदाहरण... कर्ण क्षत्रिय हो दैन्य का पात्र फैला परशुराम जी की सेवाकर विद्या लें सकें , भेद उनकी क्षमता(सहनशक्ति) ने खोला जो ब्राह्मण का नहीं क्षत्रिय का विशेष गुण है ।
दैन्य की निर्मलता के बहुत चरित्र है... लेने वाले को दैन्य आवश्यक है ...देने वाले को करुण होना ।
और जहां परस्पर समभाव है... वहाँ प्रेम के स्पंदन से समस्त भाव बिना कहे भी आदान-प्रदान हो जाते है... जैसे भाव पथ पर श्रीप्रभु के भाव आपको उनके बिना किसी प्राकृत स्वरूप से कहने पर भी भीतर अनुभव होते है... तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । प्रेम को दैहिक द्वेत की आवश्यकता नही होती । और समान प्रेम होने पर अपने प्रेमास्पद के भावों को पीने की लालसा रहती है ।
किसी भी वार्ता के लिये सन्मुख रूप-स्वभाव से ही बात हो सकती है ।
आपको लगता हो जगत से मैं गहन रस को कह सकता हूँ तो जहाँ पात्रता नहीं है वहाँ कहीं बात कुछ पल्लवित या अंकुरित नहीं करेंगी । और जहाँ रस पिपासा है मेरे लाख रोकने पर भी वें मेरे हृदय को निचोड़ कर अपने हृदय की शीतलता को जीवन कर सकते है जैसे शुष्कता में भी कुआँ खोदा जाता । यही राग मल्हार कहती ... यहीं पुकार मयूर की माँग होती.. जो केवल मेघ समझते ।
भाव-रस की बात उसे समझ आ सकती जिसका हृदय कभी रूप या मधुरता या सौंदर्य का आसक्त हुआ हो । और जिन्हें नित्य सहज सौंदर्य की माँग हो । राग-रागिनियाँ जिसके हृदय को छेड सके । जिनके हृदय में श्यामाश्याम की छबि से कोई उहापोह ना हो उन्हें हम प्रयास कर भी सीधे अमृतपान तक नहीं ला सकते । उनकी समस्त चाह को निरीह कर जीवन का मधुर सत्य अनुभव करा ही प्रेम प्रभु की कृपा का दर्शन करा सकते है । ...
मनुष्य को रस की तलाश है । सम्पूर्ण रस श्री रसिक प्रियतम में शरण पाते है और श्री प्रियतम हृदय से नित्य भावरस की तृषा की कुँज श्रृंगारित होती है । सो भावरस केवल उन्हें प्रिय होगा जिनका मन प्रियतम ने रस में डुबो दिया है और अब उस रस को भाव रूपी पात्रता और भाव रूपी पात्र में सुमधुर रस अनवरत श्रृंगारित चाहना होवें ।
एक भावुक हृदय ने कहा सिंहनी दूध को पचाने का सामर्थ्य कहाँ सब मे । अब सिंहनी का दूध कोई पचा नहीं पा रहा तो क्या सिंहनी दूध ना दे । वह दूध उसके शावकों का पोषण है ... अथवा कुंदन के पात्र चाहिए यहाँ ...फिर एक भावुक ने और कहा मुझे कि शावक ही होंगे सन्मुख इस रस वर्षा में । शेष प्रपन्च के बस की बात नहीं तो कोई यह न कहेगा कि हम अपात्र है अपितु कहेगें और कहते है अभी यह(मैं) अपात्र है... अथवा डिस्प्ले कर नहीं पा रहा कि व्यापार होना क्या है ??
क्योंकि विद्यालय औषधालय खोजती रुग्ण या अविद्या भरी चेतना रसालय-मधुरालय मधुशाला में अपने रोग और अज्ञान को कैसे मिटावे । जबकि नित्य रसमधुरालय कुन्जों में होना ही परिधियों से परे के जीवन में होना है ।
मैंने ऐसे पथिकों यह ही कहा रस पीकर कहकर या पिलाकर देखिये तब अनुभव होगा... तृषा का अभाव ।
रस के अनुभव से रस की माँग है और तब तृषा है । शेष में रस विषयों में है सो सहजरस की माँग ही नहीं । अथवा सहजरस को असहज पेकिजिंग में पिलाया जाता । जैसे छाछ को पेकिजींग में बटरमिल्क कह कर पिलाया जाता है । मैनें दूध सेवा में निहित पुराने ग्रामिणों से सुना था मक्खन निकाल कर छाछ पशुओं को पिला देते थे । (पेकिंजींग से माँग बढा दी जाती है)
यह अनुभव रहा है किसी भावोत्सव में मौहे गहन रस सुधा में डूबने की आतुरता हो और उस दिन सन्मुख चर्चा में जनमानस वैसा न हो तो मेरे हृदय की अतृप्ति उबाल डालती भीतर मुझे (तृषावर्धन लीला)।
एक बार सर्व सामान्य हुई कथा में मेरे हृदय के रसविषाद को शीतल करने को मौहे अन्तराल लेना पड़ा । सब से छूटते ही मेरी जो दशा हुई वह मात्र दो ने देखी... वह स्थिति सर्व सामान्य में हो नहीं सकती थी ...होती तो ना जाने क्या लीला होती । जिन्होंने देखी वे दो तब निकट थे... तनिक सहम गए । पुनः 1 घण्टे बाद मैं सर्व की वस्तु हो गया । अतः यह विस्फोट सहन करने के लिये भी पात्र हो जो फंट जाना चाहता हो । मैं तो विनय करता हूँ एक-एक रसीले हृदय से आओ और वही जब लौकिक भीड़ होती तो समझ भी जाता हूँ ...आज मेरे हित का दिवस नहीं । यह भी आवश्यक है ही... सभी दिन मेरे हो सम्भव नहीं । (रसिक बहुत है परन्तु सब अपनी अपनी रसमयता में भरें है अथवा अभी उनके सुख की पात्रता ना हुई)
बहुत लोग पढ़ सुनकर मिलने को आतुर होते , तब वह मेरी बाह्य दशा एक घोर संसारी लोलुपताओं में डूबे से जीव की पाते और पुनः न मिलते , यह भी लीला उनकी...
भावुकों जो मुझसे चाहिये उसके हेतु कोई दृश्य सम्बन्ध आवश्यक ही नहीं । दृश्य तो मैं अभाव भरी कठपुतली भर हूँ ।
अब यह सब लिखते हुए मैं एक नन्हें शिशु सँग खेल रहा हूँ... जो वह खेल देख रहें है उन्हें यह बात पढ़ कर मिथ्या ही लगनी क्योंकि शिशु सँग शिशु वो देख रहे है । श्रीप्रभु क्यों शिशु हो लड्डूगोपाल पूजित होते ...शिशुता धारण कर जीव हृदय से वात्सल्य प्रकट कर निर्मल प्रीति रस पीने हेतु ...हम हरिदास स्वामी को रसविभु नहीं देखें अतः वह शिशु हो रहें ...शिशु सँग स्वभाविक हृदय शिशु हो प्रेम से उछल पड़े ...रसिकन की कृपा यह निधियाँ जो वह खोले... सर्व समाज दास हो तब ही वात्सल्य को अनुभव कर सकता । यह उलट भी है रीत माधुर्य सुधा भरी हो तभी सहचरत्व फूलेगा , तब ही फूल से कोमल युगल शिशु के प्रति लाड़ उठेगा और प्रफुल्लित होगा वात्सल्य ..श्रीयुगल प्रियाप्रियतम सेवार्थ गोद में(भावश्रृंगार कुँज या रंगमहल सेवित) । श्रीकिशोरी जु के हृदय में भी वात्सल्यसिन्धु भरा होता निज प्रियतम हेतु । ...सखियन का हृदय भी उन दोनों के सुख को निज शिशुवत पोषित कर रहा होता । फिर श्रीजी का दास्य परमोच्च । तो यह नहीं कह सकते दास्यता से केवल मधुरता तक गति । मधुरता की भी गति दास्यता और ना केवल दास्यता मधुरता भी जाती शून्यविश्राम तक... तृषित । जयजय। श्रीश्यामाश्याम जी । (युगल विश्राम की सुक्षुप्ति का सँग ही शान्त रस है)
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