कृपा का अनुभव क्यों नहीं ??

जानते है आप कृपा क्यों अनुभूत नहीं होती आपको ???

आप के भीतर एक इच्छा होती । इच्छा की सिद्धि की भावना कभी कृपा का विलास अनुभूत नहीं होने देती ।
कृपा तो मरुस्थल पर होती अमृत वर्षा है ।
पर बहुत बार साधक डूब कर नहीं , बेलेंस बनाते हुए चलते ।
डूबे बिना कृपा कभी अनुभूत ना होगी ।
डूबना हम चाहते नहीँ क्योंकि अस्तित्व को खोने का भय होता । परन्तु अस्तित्व न खोवे जब तक कोई डुबकी होती ही नहीं ।
प्राप्त रस में डूबिये ।
भीतर अपनी और मांग न हो ...
माँग की वस्तु कितनी ही रसिली हो , रस नहीं देती । रस मिलता जब हम रज कण ना माँग सकें ... और सम्पूर्ण अधरमाधुरी सुधा हृदय पर प्रफुल्लित हो जावें ।
और रसिकन की मांग तो आपकी लालसा हेतु मात्र है , उनके भीतर कोई माँग है नहीं ... जीव की इच्छा कैसी हो इसके अनुभव के लिये सारी व्याकुलतायें है ।
यह रस रज के करवे का है ... स्वर्ण थाल तो माँगा ही ना गया । भीतर रिक्त स्थली हो  ...
मुझसे कभी कोई कुछ चाहता (कोई भजन ही हो वह) तो मुझे सुख नहीं होता ... पहले दिया खो गया यहां तो नव को विस्मृति नहीं पुकार रही ।
बिन माँगे जो मिला उसे सहजिये । सँग कीजिये , पर मांगिये मत ... बिन माँगे क्या मिल रहा यह अनुभव तब ही होगा ...
जिज्ञासु रसीला नहीं हो पाता वह वेदना का उपचार बाहर चाह रहा जबकि रस-प्रेम-भाव यात्रा जिज्ञासा का पथ नहीं , लोलुप्ता का पथ है ...लोलुप्ता अर्थात पिपासा जो और गहराना चाहती । पर साधक दवा बाहर खोजते । भीतर बाहर पिपासा खोजिये ... पिपासा को मिटा कर रस होगा कैसे ??? उसका विकास खोजिये । मिल रहे अमृत को पीजिये ।
स्थिरता आवश्यक ... अमृत मिल रहा यह भी बिना स्थिर हुए सम्भव नहीं होता । मन का चाँचल्य जब तक ही जब तक उसे युगल रस की पिपासा नहीं ... अनन्य होना तो केवल युगल सेवार्थ । तृषित ।

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