रूदन , तृषित
रूदन
जानते है जीव की उत्कर्ष भावना कब प्रकट होती है । ... जब वह तन्हां हो । ... हम सब खो कर भी तन्हां नहीं होना चाहते । और हृदय को चाहिए नित्य गाढ़ अलिंगन । वह मिला भी है हृदय को ...नित्य उनका संस्पर्श परन्तु बाहर हमने शोर इतने फैला लिए की हृदय कभी हृदय ही ना हुआ ... मन हुआ बह रहा ... बाज़ारो में ।
अगर आपके जीवन मे तन्हाई है , तन्हां होकर कभी रोये हो । तो मिल सकता है सब कुछ । यहीं रूदन जीव की मूल स्थिति है ... असंग अनुभव होते ही वह रोने लगता है ... यहीं रूदन धरती पर मनुष्य की स्वभाविक प्रथम प्रतिक्रिया । आज भी जब कुछ छूटता है । ...तन्हाई आती है तब हम रो पाते है बिलख-बिलख ।
मुझे दो तरह के जीव मिलें इस संदर्भ में एक वो जिनका सब छूट गया ,आँसू बहते रहते है । पर यह जीवन की सबसे उत्कर्ष निधि है ...अश्रु । इसे बाहर के सम्बन्ध - वस्तु के लिये बहाने वाले बहुत भोले है ...उन्हें ना पता अगर इतना ही स्वभाविक अश्रु कण श्रीश्यामा हियनिधि मनमोहन की छवि पर रीझ कर गिरे तो मनमोहन स्वयं पीछे फिरै । पर अश्रु सच्चा हो ... अन्याश्रय न हो उसका । ऐसा नहीं मंदिर में भी रो लिए । शादी की विदाई में भी । कही किसी के जीने मरने में भी । श्यामसुंदर को अगर अश्रु से पुकार ही रहें तो यह अश्रु उनकी निधि । अब जीवन भलें जल जावे ... भस्म हो जावें , बाहरी कारणों में एक कण न छलके । ...जीव के प्रति श्रीप्रभु की अपार ममता है ...और जीव का स्वभाव प्रकट होता है एकांत के रूदन को जीवन मान उस एकांत में रुदन को भोगे बिना उसे अपनी सर्व शक्ति बनाने पर । ...वास्तव में हम सब तन्हा है अगर हृदय को भगवतानुभूति नहीँ हुई तो । बाहर तो केवल स्वार्थ का खेल है ...किसी भी सम्बन्ध में किन्हीं का भी स्वार्थ न सिद्ध हमसे हो तब हम पाते है ...बाहर कोई नहीं हमारा । तो है कहाँ हमारा कोई ... यही आवेश रूदन शक्ति है । जीव की यह व्याकुलता को प्रकट करने की शक्ति ईश्वर के पास नहीं है अतः वह इस रूदन का मूल्य समझते है । ऐसा नहीं श्रीप्रभु व्याकुल नहीं जीव मिलनार्थ । परन्तु कह नहीं सकते अपनी व्याकुलता निज स्वरूप में ...मनमोहन को जब हम देखेंगे , मुस्कुराते देखेंगे । ...नित्यानन्द स्वभाव इनका । यह ममता की सुधा उनकी जिनके ममत्व का अणु मात्र समुची सृष्टि का ममत्व रक्षण शक्ति है । अथवा कहें सृष्टि की सारी ममता उनकी ममता के सागर की बिंदु मात्र है । तब इनकी व्याकुलता ... परन्तु इनकी व्याकुलता व्यक्त नहीं होती । हाँ यह व्यक्त करने के लिये निकट भी आते जीव के अवतरण लेकर परन्तु सदा ही कह नहीं पाते निज प्रियता । ...एक जीवन है मात्र श्रीप्रभु की इस व्याकुलता का उद्घाटन का , और ईश्वर स्वयं व्याकुल है यह माने बिना जीव प्रेमाणु का संस्पर्श नहीं कर सकता अतः तृषानुभूति का श्रीप्रभु जीवन ...श्री चैतन्य महाप्रभु । अपने इस अवतरण से पृथक प्रभु की व्याकुलता कभी अनुभूत नहीं होगी क्योंकि यह उनके ईश्वरत्व का दोष है वह रो नहीं सकते । तो समझिये रुदन का अस्तित्व । तृषित। क्रमशः ... । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।
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