आह्लादिनी प्रीति की सुगन्ध रहस्य , तृषित
आह्लादिनी प्रीति की सुगन्ध रहस्य
भक्ति... आहा ...आह्ह ...आह्लादिनी । कितनी अनन्य सेवा है अपने ही हृदय आह्लादिनी की रिझावण की । अति कोमलांगी यह प्रीति स्वरूप और स्वभाव से झरती प्रति स्फुरण में आनन्द का निज आनन्द । रस का निज रस । रूप का निज रूप । स्व भाव तो है इन श्री प्यारी श्यामा जु का निज ...शेष तो प्रभाव है इनके स्वभाव महाभाव का । प्रभाव भी कहाँ तक भुवन मोहन मनहर प्राणों तक । ...मधुरा श्री राधारानी अनन्त की अनन्य सुधाप्रीत जीवनी ही है । प्रीत भी कैसी..? ...विचित्र ! कैसा प्रेम-वेचित्य आह ऐसा कि अनन्य अनुराग - अनन्य माधुरी - अनन्य सुधा - अनन्य प्रीत रस सुधा होकर - अनन्य प्रेम वैचित्री । और इस ही वेचित्य के रस में डूबे मोहन हो गए दीन... वेचित्य अर्थात मिलन की गाढ़ता में प्रियतम सन्मुख प्रियतम के आगमन की पिपासा ...पूर्वाराग की स्थिति मिलित नवानुराग ।
समझ न आई न यह बात ...भक्ति महारानी जु स्वयं श्री सर्वेश्वर निधि प्रियतम प्रभु के निज हृदय की आह्लादिनी ही तो है । और यहीं भक्ति महारानी मानिनी हो गई है... मान कैसा ? नित्यमिलित प्रियतम जल सुधा के लिये जैसे सन्तप्त मीन । प्रीत रूपी भक्ति भीतर निरत सँग में पुकारती अपने ही सँग को और ऐसी प्रीति रुपा कुँज अर्थात हृदय दौड़े आते वहाँ लाल अधीन हो अपनी प्राणेश्वरी के प्रेमोन्माद में । श्री प्रिया का यह वेचित्य बिन्दु जीव के हृदय गिरी आह्लादिनी की कृपा बिन्दु अर्थात भक्ति स्वरूप है । अपनी निज को प्राणा प्यारी को खोजते-खोजते वह आ जाते कुँज-कुँज रँग रँगे(कुँज-द्रवीभूत प्रीति भावित हृदय) । दास कैसे ऐसी सौंदर्या स्वामिनी के सँग बिन निमिष भी रह्वे । किसी भी कुँज में मनहर अनुभूति तब है जब वहाँ श्रीप्रियाजु जु अर्थात प्रीति श्रृंगारित होवें वेचित्य ही नव कुँज को रसिली होने का सौभाग्य दे रहा । एक बात यहाँ विशेष है प्रियाप्रियतम का रसास्वादन हो और कोई बात कह दी जावें सीधे-सीधे ही यह मीन ...यह जल । यह भृमर ...यह पुष्प । हालांकि हम ऐसा जानते ही कि पुष्टि यहाँ प्रियतम हृदय विशेष केलि हो रही परन्तु यहाँ कोई स्थिति ...कोई दशा ...कोई भावना ...कोई राग ...कोई श्रृंगार केवल किसी एक का कहा नहीं जा सकता । दोनों परस्पर उपासक और परस्पर उपास्य । श्रीकिशोरी जु की क्षणिक भावना जीव हृदय को सरल कर देती तब वह तो संगिनी सँग श्रीलाल ...लाल हुए जा रहें रसिली रँगीली जु के सँग से ।
प्रियतम नित्य क्या गुणगान करते ...जी प्रिय प्राणा का निरत गान ही सुनते ...वहीँ करते ...किसी भी विधि से जैसे वेणु माधुरी अथवा लीला दर्शन में प्यारी के ही श्रृंगार रस के रसिक यह प्रियतम नयनों से समेट हम समस्त भवमण्डल को निज नैनो से वहीँ दृश्य सुधा माधुरी निज नयनों से पिला रहे हो ।
हम भगवत गुणगान करते भगवान की उपस्थिति का स्थान अर्थात भाव महाभाविनि लाडिली प्यारी जु का नहीं । वह प्रीति ही उनका निवास है ... वह प्रीति प्रकट होवें कैसे वह होगी प्रियतम माधुरी रसास्वदन हेतु । हम सुनते ही श्रीकृष्ण रस पर प्रीति रूपा श्रीप्यारी उस रस सुधा हृदय में पान करें यह अनुभव लेकर कोई युगल रसीले ही श्रीकृष्ण माधुरी से अपने हिय कुँज को नित सुगन्धित करते रहते है ।
जैसा कि प्यारी का गुणगान कर कुँज-कुँज कुंजेश्वरी को रिझाते मोहन प्यारे स्वयं कहीं प्रकट हो जावे तो वहाँ वह गाते भक्ति महिमा को अथवा कहे प्यारी स्वरूप को । परन्तु एक रसिक स्थिति ऐसी जहाँ प्रीति और प्रीति के अनन्य प्रियतम प्यारे को सँग रिझा लिया जाता ।
एक जीव स्थिति जहाँ वह प्रयासों से भगवत उन्मुख को लगा है कभी कोई क्षणार्द्ध झलक बनें ।
एक रसिक सिद्धदेह भाव सेविका सखी-किंकरी-मंजरी जो दर्शन करती उन्हीं प्रियतम का हिय कुँजन में प्यारी के गुणगान गाकर मनाते मदनमोहन जु का । और प्यारी की इस महिमा मण्डन में प्यारे सहज स्व को निज प्रेम पथ के अधीन स्वीकार कर इस प्रीत सुधा पथ के रज कण-कण को प्राणेश्वरी की प्राण मान सेवित होते है । अर्थात पथ की महिमा है और इसी पथ की नींव श्यामा जु है और इस पथ की शिखर श्यामा जु है ...इस प्रीत पथ की ध्वजा भी वही श्री प्यारी जु है और इस प्रीत पथ का मूल मंदिर रूपी प्रेमधाम श्रीवन भी स्वयं श्यामा जु है और प्यारे के निज हृदय रूपी इस मंदिर में आराध्या श्यामा जु है । इस अनन्या की वेचित्य स्थिति का सम्पूर्ण झरण पान करने को प्रियतम नित्य अपनी ही प्रीति सुधा हेतु अनुगमन करते स्वयं ही उन्हें प्राप्त करते है । अर्थात इस निज प्यारी रूप हिय निकुंज मंदिर के किंकर ...दास और पुजारी भी प्यारे ही है । और यह रहस्य कोई वेद शास्त्र जान नहीं पाता । केवल विहार सखियाँ यह दर्शन सेवन करती । वेद अनन्त ..व्यापक ...सर्वभूत जिन्हें कह रहा वहाँ वें शास्त्र रूप तृषित नहीं दृश्य होते ।
क्योंकि मूल में प्यारी जु के श्री आभूषणों की खनक झनक भर शास्त्र का शब्द समूह ध्वनित है । अनेक मंत्र नाद तो प्यारी जु की पेजनियों की खनक पर स्तम्भित हो गए है । प्यारी की महिमा शास्त्र जाने तो जगत जाने , अब शास्त्र का स्वयं का श्रवण अनुभव जिन श्रीप्यारी के दिव्य आभूषणों की झनक- खनक भर है । वह खनक है ही प्रियतम की प्रीति के आभूषणों की ...सम्पूर्ण प्रीति प्रियतम के स्वरूप का ही प्रकाश करें है ...प्रियतम सुख का ही । तो प्यारी माधुर्य कैसे वेद अनुभूत करें , अथवा कैसे यह पथ हृदयंगम होवे । यहाँ प्यारी की निज वैचित्री गहन है , वह स्वयं ही करुणामय हो लाल को रस देती हुई जब उनके स्वरूप भूत हो जावें और लाल श्रीप्रियाजु स्वरूप तब श्रीप्रियाजु रूपी लाल का जस जगत के समक्ष खुले । वह क्यों ???
प्रियतम की सुख की यह अनन्या जब श्याम होवें और श्याम जब श्यामा तब यहीं श्याम भई श्यामा रूपी प्रीति का स्वरूप - प्रीति का स्वभाव आह्लादिनी श्याम हो यश गावें श्याम का ...जो कि श्यामा प्रेम-रूप सुधा में श्यामा ह्यो गए ...तब मूल में श्यामा अर्थात भावित यह श्याम स्वरूप प्यारी श्याम हुई प्यारी को जस गावें तब कोऊँ सुनें । वरन सम्पूर्ण प्रीत पथ स्व को नहीं प्रियतम सुख को स्रोत है ...सागर है । इस प्रीत यमुनोत्री को काशी गंगा में हरी चरणामृत सुधा में मिलने पर ही पान करें है अर्थात शास्त्र इस प्रीति के चरण नूपुर को ही सुन नादित होता है । इससे अधिक यह प्रीति ही प्रियतम हो प्रीति का तनिक भेद कह सकती । क्योंकि तब प्रीति का स्वरूप प्रियतम होंगे । वरन यह भेद कोई विहारिणी सँग सहचरी गावें । तृषित । जयजय श्री श्यामाश्याम जी।
जे न पत्याहुं सपत नहिं मानति चलि सुनि अपने कानें ।
जो तुम स्याम होहु वे स्यामा तौ यह वेदन जानें ।
। श्रीहरिदास । श्रीहरिदास । श्रीहरिदास ।
। श्रीहरिदास । श्रीहरिदास । श्रीहरिदास ।
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