प्रियता-प्रेम-रस , तृषित
*प्रियता-प्रेम-रस*
जानती हो सखी.. हम उन्हें क्यों प्रिय है , क्योंकि हम है ही उनके री । जो जिसका होवे उसके स्वभाव में होवे है प्रेम री ।
सो हम उन्हें प्रिय है , बस उनकी इस प्रियता सुं उनको हमें लाड़ लडानो है ... जेई में जीवन की सार्थकता ह्वे री ।
सखी हम शरणागत दास-दासियों की जे ही व्यथा है री ... प्यार मिल ग्यो जेई से वे ही हमे अति प्यारे न लगे ...जितने लगने चाहिए उतने न लगे है री हमें प्यारे , सो रोम रोम से निरन्तर पुकारती रहो री ...प्रियतम अपना प्रेम दो ...प्रियतम ।
हम सब जाने कि बाहर जो मिला सेवा हेतु है , सर्व रूप सेवा और प्रीत बढ़ती रह्वे ।
तबहि वें मानव को निज स्वरूप से ही प्रकट किए है प्रेम-सेवार्थ री । मानव तो उन्हें अति प्रिय है , कह न सकें कितने प्रिय री । प्रेम दे दे कर वे प्रेमी बनावें , अनन्त प्रेम लुटावे । प्रेमी ही प्रेमी बनावे है री ।
जेई प्रियतम के प्रेम को रहस्य जब ही हृदयंगम होवै जब अपनी दीनता-निर्बलता बनी रह्वे और प्रियतम की गुणगान-महिमा नित विकसित होवें ! क्यों विवेक को प्रकाश दिए है और बुद्धि रूपी नेत्र दिए है ??? ...भूलों को समझकर सुधार सकें और भूल करवे से छुटे । हम भूल न करें और जीवन को सदुपयोग करें तो ... धीरे-धीरे विकार छूट जावे है , और स्थायी शांति रह्वे है- चिरशान्ति , और पराधीनता छुटे जगत में अभिन्नता जो होई जावें प्रियतम सँग ।
यह मानवस्वरूप तो अतिकृपालु हो देवे है री ऐसो स्वरूप उदार और अपनत्व से दिए है.. यह मानव स्वरूप जगत और प्रियतम दोनों की सेवा के लिये उपयोगी है री ।
जबहिं प्रियतम को प्रेम देख सके तब नित पुकारती रह्वे ..हे प्रियतम तुम कितने अच्छे हो ...नवनव लीला कर प्रति रूप-रंग में नित सँग रहो । हे सुन्दर अनन्त रूपों में तुम ही सृष्टि को सौंदर्य में सजा रहे हो न ।
हे प्रियतम शरणागतों को अपनी ही प्रीति प्रदान करते रहो और हे शरणागतों मिली हुई प्रीति से इन्हीं प्रियतम को रस देते रहो जी... ! जे प्रीत जो मिल रही है जब प्रियतम को सर्व विधि रस देने लगो तब ही प्रकट होवें है ...रस को रस ...रस को ही देनो है , अपना कहाँ कुछ री । तब भी काहे सबहि झिझको । नित लाड़ लड़ाओ प्रीत को रसास्वदन भीतर बाहर सेवामयता में ही प्रकट होवे है री । बाहर सर्व जगत सेवा रूप मिलो है और भीतर प्रीत वे नित दे रहे री ।
जे प्रियतम तो रसीले है ही री रस को ही आदान-प्रदान करें । इनकी प्रियता से इन्हें ही रस देनो है री । रस को आदान-प्रदान ही जीवन है और यह आदान-प्रदान निभे इन प्रियतम सँग ही । ये ही नीरस जीवन को प्रियता में डुबो अपने रस में अभिन्न कर दे । रस देनो जो चाहे वे ही तो प्रीति को अनुभव करें है री जो लेनो चाह्वे वे मिल रह्यो प्रेमसुधारस जे बात कबहुँ समझे ही न री । प्रियतम को प्रेम प्रियतम से हम क्यों माँग रहें रस लेने को नहीं , उसी प्रेम से इन्हें प्रेम रस देने को री ।
और अनुभव कर देख री नित गाढ़ प्रेम ही प्रेम तो जे बरसावै । प्रेमी होय ही प्रेम देवे है री ...शेष कर्णामृत अग्रिमभाव में --तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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