मधुर आसक्ति , तृषित
मधुर आसक्ति ...
वस्तुतः है हम सभी को मधुर आसक्ति ...मधुरता की लालसा । परन्तु भोग विषयों में ही ...सस्ती-नकली मधुरता से सब की यात्रा चल रही । भोग लोक के विषयों में क्षणिक मधुता या सौंदर्य या प्रेम का आभास भर है । सन्त कृपा आदि से मेरा अनुभव है कि यह भोग विषय से हम छूट नहीं सकते । विषय-भोगों के सुख-दुःख के मध्य ही जीवन मान लिया गया है ।
हम इंद्रिय तृप्ति को मधुर कहते है । परन्तु मधुराधिपति तो सर्व इंद्रियों से अप्राकृत नित्य रसमय मधुर है । सो ऐसी मधुरता तो स्थूल इंद्रियों में सिमटते बनेगी ही नहीं , अब भोग-विषय में इंद्रियों के इर्दगिर्द जीवित हम कैसे इंद्रियों से परे या सर्वेन्द्रिय प्राण मधुरिमा में कैसे जीवन की सुगन्ध लें ।
कोई एक इंद्रिय किसी एक वस्तु से क्षणिक तृप्त हो सकती है । मन-बुद्धि- प्राण अनन्त काल की सन्तप्त चेतना नहीं । कुल मिलाकर अतृप्ति ही सँग है क्योंकि वास्तविक तृप्ति की ओर या तो लालसा ही नहीं हुई अथवा इन्द्रिय तृप्ति की परिधि छूट ना सकी , ज्ञानमार्ग यहाँ देहाध्यास कथन करता है परन्तु प्रेमी तो सहज ही प्रेमास्पद के अनुभव और रस की सेवा विवशता में देह सुख से परे ही सेव्य के हृदय की उत्ताल तरंगों से जीवनमय हो उठता है ।
आज अधूरे संवाद या लेख भी शेयर यूँ होते जैसे शेष की अपेक्षा ही न उठी अथवा विश्वास है कि अग्रिम भी लेख मिलेगा जिसमें शेयर कर इस छद्म अहंकार का सुख तो होगा पर जीवनस्थ लालसा की माँग तब भी शायद ही कहीं उठे ।
यह माधव तो घनिभूत मधुर मधुतम मधुमय मधु माधव है परन्तु सत्य में हमें तो नित्य तलाशनी है कि क्या इस माधुरी पान की चटक ...आह है हृदय में । उत्तर अगर हाँ है तो हम किसी भृम पथ पर है ,वरन श्री प्राण इन माधव के माधुर्य रस सुख की नित्य मधुरा प्राणिनी श्री प्रिया जू तक में नित्य अतृप्ति है इस मधुर पान की । प्यास होय दोऊ उमगि ।
होता क्या है ...भक्ति पथ पर कुछ काल की तनिक बाहर से मिली चिंगारी(अंगारे) को हम अपनी पिपासा या लालसा जान उस चिंगारी से जले कागज जलने जैसे दाह को अपनी भक्ति कहकर कहीं भी इस मधुरता को अनुभव कर डूब जाते है... और अपने प्राण रस प्रियतम को नित्य सघन गहन सुख दिए बिना ही स्वयं की भक्ति का बखान कर झूमते हुए सुख अनुभव कर सकते है क्योंकि पापमय कलिकाल में तनिक कम पाप या तनिक कम मल दुर्गन्ध प्राप्त कर लेना कुछ विशेष सुख देने लगता है जबकि अब भी जगत-देह से सम्बन्ध की ममता छुटी नहीं होती है क्योंकि प्रेममय स्थिति में प्राणेश के सुख की अतृप्ति रिक्त हृदय छोड़ती ही कहाँ है , और और सेवा लीला भरे कौतुकों के लिये उत्स ही बढ़ता है और वह उत्स या रस हमारा भोग नही होता है , वह तो सेवा है श्रीहृदयनाथ की परन्तुअगर प्रेम नहीं है ..श्रीप्रियतम को रस ही नहीं हुआ है तो वह पुकार-भजन केवल इंद्रिय तृप्ति होगी । सच्ची पुकार या लालसा से सत्य की झाँकी भर नहीं रसमय नित्य वर्द्धित संवर्द्धित उत्सवित वपुता सहज प्रकट सँग होगी ही ।
परन्तु अभी हम भोग देह है , सेवा देह नहीं । तो भोग देह की इन्द्रिय जन्य मधुरता को हीभक्ति कहते है ।
भक्ति तो स्वभाविक प्राणांत मधुर मुग्धे है , वहाँ बाह्य रूप से नहीं उसमें निहित लास्य से उत्सव उठता है ...प्रेमास्पद का यश गाता काक स्वर (कौआ) भी वन्दन सँग मधुर श्रवणीय है ..भक्ति रस है प्रकट है तो ।
मैं राम राम पुकारूँ , पर वह पुकार हो ...लोकरंजन या मनोरंजन के लिये ..ही तो वह पुकार मन की सत्ता को पुष्ट कर रही है और जब तक मन है , जगत रहेगा , मेरी पुकार में जब लालायित होने पर मैं और मेरा जगत दोनों ही वह प्राणेश हो उठे तब तनिक मधुता का छींटा असर करेगा । अर्थात् मैं नही जब राम ही रहेंगे तब असर बनेगा परन्तु इस मैं को और भी विराट मैं करने के लिये अगर पुकारूं तो भले वह अधिक संख्या में प्रिय लगती हो परन्तु उसके मूल में उद्देश्य निष्काम नहीं है । सीधी सी बात है कि दो श्रृंगार हो सकते या तो अपना (जो कि मिथ्या ही है) अथवा श्रीहरि का । श्रीहरि का श्रृंगार या सुख अथवा रस देने पर जो सहज स्वयं को सजता पाया जाता हो वह प्रेमी है , पर प्रेमास्पद चिंतन रहने तक ही अपना प्रेम है ना कि यह भी चिंतन कि क्या मैं भी रस दे कर ऐसी अवस्था पा सकता हूँ ...प्रेमी को अवसर ही नहीं होता मैं की चिन्ता का । और अहम् या मैं की चिंता छूटने पर सहज जब अपनत्व हो प्राणेश प्रियतम सँग तब सहज ही लीला में उपस्थिति बन जाती है परन्तु लोक सँग तब भी शून्य रहता है । बाह्य शून्यता से ही भाव रूपी भीतरी विलासमय विपुलता गम्भीर होती है । जीवन को बाहर पीकर जो सुखी हो उसका गोप्य आंतरिक निजतम धामों में पार्षद-परिकरी वत जीवन भीतर उछलेगा ही कैसे ??
मेरी पुकार केवल भगवतोन्मुखी आह्लाद वेदना या प्रेममयता से हुई है तब वहाँ वह स्वर कितना ही कटु या विचित्र हो ...मन का रंजन नहीं करेगा । मन हर ही लेगा क्योंकि मनहर उस वेदना रूपी आँच पर पके रूपी क्षीर पकवान रूपी तुम्हारे हृदय को पाने हेतु वहाँ इतर ही विराजमान ही होगें । और यह मन का हरण ही न हो तब कौनसे श्रीकृष्ण हमने पाए यह समझ नहीं आ रहा यहाँ । श्रीकृष्ण तो मन को हरण कर एक मात्र स्वयं के लिये स्पर्शित सुमधुर भाव छोड़ देने के लिये ही प्रियतम है । उनकी माधुरी किसी भी भेद या खेद अथवा किसी तरह से ही अनुभव होवें तो तब लोकार्थ मन शेष रहता ही नहीं ।
बाहर मन भी हो , और भीतर भक्ति भी हो , और प्रियतम श्रीकृष्ण सँग भी हो यह सम्भव नहीं । मन नहीं रहता तब जो स्थिति रहती वह केवल श्रीकृष्ण के विवश हुए रहती ।
पर हमारा मन क्यों बना रहता है इतना होने पर भी ...क्योंकि हम इंद्रिय भोग कर रहें । सत्य में पिपासित नहीं । एक बार बहुत बड़े भजन सम्राट बीते दिनों टी वी के एक शो पर बातों ही बातों कह गए वें सब खाते पीते है । अर्थात सब ... बल्कि फल-फूल का आहार-उपहास में लिए और मांसाहार को खाना मानवीय अधिकार ही कहे । फिर वह अनगिनत भजन ... उन्हें हम सब सुनते रहे है , अपितु वह इतने सुप्रसिद्ध है कि मैंने विरक्त संतों को भी उन्हें सुनते पाया है ...यहाँ वह जो भाव गाते वह रसिक वाणियाँ ही सहज सुमधुर है ...नित्य अनुराग मयी है ।
परन्तु जिस स्वर से वह रस प्रकट वह स्वर कौशल तो पूर्ण है , उसकी दाहिका शक्ति अपूर्ण है । धनुष सच्चा हो और बाण सच्चा न हो तब कैसे वेधन होवें । उनके कथन में भक्ति की मांग और बाह्य जीवन में भोग विषय की लालसा । साधक स्थितियों तक तो इन दो में कोई एक ही लालसा भीतर का सहज वेग होगा , सिद्ध स्थितियों की भीतर-बाह्य रीति में विचित्रता हो सकती है । परन्तु साधक की बाह्य रूचि और भीतर की लालसा में भेद नही होना चाहिये , प्रेमास्पद सुख स्मृत हो । भजन को गीतवत गाने भर से सिद्ध नहीं होता कि प्रेमास्पद भी वह है ही अगर है तो उनके सुख के विपरीत कृत्य ना होगें , उनके सुख विपरीत कृत्य हो भी गए तब तो अपराध मानकर प्रायश्चित लालसा उठेगी ।
वहाँ भजन गान वैसा ही है जैसे सरकारी नौकर के लिये दस से पाँच का काल बेस्वाद है । कर्म में हम आसक्त नहीं होते केवल निर्वाह कर रहें होते , भाव तो जब उत्पन्न होवै जब भाव केवल कर्म न होवें । सहज होवें ... कर्म द्वारा हम लोक सुधारना चाहते अपने । यहाँ से वहाँ महल ही चाहते । अब इन महलों की यात्रा में वह ब्रज की माटी में लौटने वाले कान्हा कहाँ है ???
अब यह भाव अति सांझा (शेयर) नहीं भी हो सके तो बस हम अनुभव करें ...इन्द्रिय तृप्ति मधुरता का रसास्वदन नहीं है । वह बस क्षणिक आभास भर इंद्रिय सुख है । कथित मधुरता में सरसत्व होता तो वास्तविक सन्तों के प्रेमगान को सर्व सामान्य में प्रकट करने की लीला प्रभु करते ही क्यों ??? इससे तो उन भक्तों के गोपन रूपी हृदय सुख के विपरीत ही लीला होती ।
रसिक तो फूल है ...कैसे ?? ... शहद भरें ..फूल। पर वह शहद मात्र मधुकर के लिए । लोक भले उस फूल को उबाल लें पर शहद हाथ नहीं आता । हाँ मधुर सुगन्ध मिल सकती । वह सुगन्ध कहती है प्रेम का भोग अप्राकृत है । लोक में सुगन्ध के इत्र और ऐसी वस्तु मधुर नहीं होती । लोक की वस्तु सर्व रूपेण कभी मधुर नहीं होती । और यह श्रीकृष्ण माधुरी सर्व रूप मधु है , इनके विलास में जो भी सहज सेवित है , वह पूर्ण मधुता देने में सिद्ध सेवाएं ही है । इस माधुरी का विरह हो या सँग - यह कटुता भी करते है तो मधुर ही वह कटुता । केवल एक यह है ...जिनका सब प्रपन्च(लीला होकर) मधुरता को ही फैलाता है । विकसित करता है । मधुराधिपति है ...अखिल रूप मधु । मधु नहीं ...मधुर ... ! मधुर नहीं मधुरतम ... मधुरतम भी नही जी इनकी माधुरी का एक बिंदु सर्व भुवन को मधुर आसक्त कर देंवे । ... अब चिंतन कीजिये , हम बहाने बनाकर इंद्रिय भोग लें रहे । या भक्ति पर सत्य में इस श्रीकृष्ण माधुरी में डूब गए है । मधुरता के सिन्धु में । श्रीकृष्णनाम कर्णामृत हो गया है । हमारा और हमारी आह भरी पुकार उनके लिये कर्णामृत हो गई है ...अवश्य वह राग मयी वेदना भरी पुकार है मधुर पर कैसी ..मधुर ...वेणु सी मधुर । जिसका सम्बन्ध केवल प्रीति-प्रियतम से है ...शेष प्रपन्च तो वह वेणुरव स्पर्श से छान डालती ।अर्थात उनकी माधुरी में डूबी पुकार केवल उनके लिये मधुर है । जीव के लिये मधुर हुई तो केवल इसलिये कि उस जीव के हृदयस्थ प्रियतम की लालसा है वह मधुरता । मधुरता की निर्मल यात्रा कीजिये । और अब प्रयासवत आप सभी के लिये मधुर स्वर भी वहाँ रख सकें , यूट्यूब चैनल पर ...वह भाव मधुर होंगे पर क्षणिक मधुर क्योंकि वहाँ नाम मधुर है पर इस चूल्हे की लकड़ी (तृषित) सुलग ही नहीं रही उसे पकाने को । बड़ी पीड़ा होती है मुझे .... भजन भक्ति के बहाने से हम मन को पुष्ट कर लेते । इसी मन का निरोध श्रीकृष्ण माधुरी है । वह माधुरी मन की पृथक सिद्धि कभी नहीं करती । मन खो जाता ... और मिलता भी नही जी । हमें तो मिलता ओर फिर ...फिर ...फिर खोता । और एक बात उस खोए मन की तलाश भी नहीं होती । मन जिसमें खो गया वह ही लालसा होती ...हमारी कथित भक्ति में हम अपना खोया मन ही खोजते है । मनहर नहीं....
किसी शायर ने कहा है .... इश्क़ कीजे फिर समझिये ...बेख़ुदी क्या चीज़ है । ...बेख़ुदी इस शब्द को अनुभव कीजिये । खुद कैसे करेगें बेख़ुदी का अनुभव । चलिये छोड़िये जी कीमती समय ले लिया आप ...मन को निभाइये , हम प्रयासत: ...मनहर को ही निभा ले , काश केवल मनहर ही उल्लास में सँग ...। युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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