जो कछु कहत लाडिलौ लाडिली जु सुनिये कान दै

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जो कछु कहत लाडिलौ लाडिली जु सुनिये कान दै

स्वप्न - भृम सदृश्य अनुभूति प्रियतम सँग रसभुत श्यामा अकुला रही ...गाढ़ आलिंगित... वह अनन्त प्रयास करते-करते शिथिल सम हो रहें । अंगीकार है पर भाव झारियों से विरहामृत झर रहा यह आलिंगन स्वप्न लग रहा अब... उनका स्वर भृम सम । क्योंकि यह आलिंगन-यह स्वर कभी छुड़ाए नहीं छूटते इस अन्तस् से भीतर यहीं स्थिति नव नव होती तब यहीं स्थिति भृम लगती ...स्व नेत्रों का दोष कि रोग लग गया मौहे वरन वे आएं कहाँ ? मिलन की गाढ़ स्थितियों में विरहित स्पंदन-कंपन-स्वरभंग आदि और  ...प्रियतम वह अकुला रहें रिझाते-रिझाते ! अनन्य सम्बन्ध की अद्भुत नवीनता देखिये सम्बन्ध अनुभव ही छूट गया और जो अनुभव वह है नहीं । विचित्र प्रीत की विचित्र गतियाँ ... ! पुकारे जा रहे लाल ...सुन न पा रही वह । खोई किन्हीं विरह स्थिति में आलिंगनमयी । अहा... एक एक कुँज , निकुंज में जहाँ मिलन रस भंग हो गया प्यारी जु के वेचित्य से वहाँ-वहाँ किंकरियाँ ...मंजरियाँ दौड़ गई । ...प्यारी के हृदयस्थ समस्त कुंजों में समस्त प्रियाओं को समस्त प्रियतम से मिलनार्थ । ...मिलन तो है उसका अनुभव छूट गया वह इस मिलन को अनुभूत नया कर आलिंगित प्रियतम के स्पर्श को केवल अपना भाव रोग समझ रही ।और रहती है यह स्थिति नित्य वह छूटती ही नहीं कभी ...
देखो मेरे नयन प्रियतम को रुदन स्वर में मुझे निहारते हुए देख रहें ...रोग है इन नयनों में भला वें समक्ष होते मैं उन्हें आलिंगन कर सम्पूर्ण मुखारविंद के सरस् मधुरत्व का पान न कर लेती । अकुला के ज्यों पुकारना चाहते बाहु पाश में अधरों के इस सन्ताप का निरत पान करती ...अधर कहते उन्हें पुकारते क्यों हो अधीर से प्यारेजु... पियो न अपनी प्रिया को। ...स्वप्न ...निरास्वप्न यह ।
और वह पुकारे जा रहें ... उन्हें लग रहा मान होई ग्यो है प्यारी जु को । अब अनन्त मंजरियाँ और सब सखियाँ प्यारी जु को प्रियतम सँग समस्त कुँजन में तत्क्षण अनुभव करावे तब वें दोनों नित्य मिलन के अनुभव का पान करें ।

यहाँ सखी इस महाभाविनि को खरी खरी कह रही ... जो कछु कहत लाडिलौ लाडिली जू सुनियै कान दै । वजन देकर विशेष मातृभावित हो कह रही । जैसे ...लाडिलौ ...सुनियै ...जू ...दै !
यह काव्यात्म प्रयोग भर नहीं । भावात्मक अनुभव के गाढ़ रस संकेत है । स्पर्श सुख है इन रस वल्लरियों में । प्यारी जु को चेताने का ...
कई बात है यहाँ गहन ...
एक तो जीव है जो अध्यात्म पथ पर आ भी जावें तो अपना ही सम्बन्ध बना लें तो फुला नहीं समाता , वहीँ यह सखी की गौरवमयी स्थिति जहाँ वह सम्बन्ध करा रही नित्य मिलित तृषित रसमय इन प्रेम पंछियों का ...
प्यारी जु के सन्तप्त भावाणुओं की ही यह सेवा ...अनिवर्चनीय । अकथनीय । शब्द की गति इस प्रेम दृश्य में । वहाँ तो वेणुरव ही इन अनुभूत करता मधुरता का सेवाओ सँग संवाद ।

दूसरी जिस स्थिति से शयमसुन्दर प्यारी जु को न निकाल पा रहे , उनके प्रेम वैचित्य की प्रत्येक भाव लहर में वह प्रकट हो रस भृमर हो कहना चाह रहें निज राग ...नेत्र प्रत्येक भाव झारी में प्यारे जु के प्यारी की मुग्धता में एक होते जा रहे है । अहा ...
वह स्वयं विवश इस स्थिति में तो सखियों का ऐसा सौभाग्य कैसे ??? लाल का स्वर इस फूलनि की मधुर समाधि भँग नहीं कर रहा तो यह ललित नव भावित सखी कैसे वह स्थिति सुलझा पाती है प्रत्येक भावकुँजन की उलझन सुलझा कर । यहीं स्थिति प्राप्ति भक्ति पथ का गौरवमय सुख है । आह्लादिनी प्यारी यहाँ स्वयं भक्ति-प्रेम का मूल स्वरूप है और यह समस्त सेविकाएं उन्हीं भक्ति महारानी स्वामिनी जु की भाव सेवाएं प्रियाप्रियतम रस समायोजन में भक्ति मयी स्थितियाँ क्या गौरव अनुभूत करती है न । एक है योग पथ , जहाँ मैं को परम से योग करा दिया जाता और अभिन्न अनुभव प्रकट हो जाता । जीव-ब्रह्म का । इसमें कोई आंतरिक नव-नव सुख नहीं क्योंकि मैं को धारण कर ही मैं को मिटाया गया यहाँ ...
एक यह पथ है रागात्मिका का जहाँ स्थितियाँ रसराज और महाभाव से एक ही नहीँ उनके सुख से , उनकी स्थितियों से एक हो योगिनी ही हो जाती चेतना ...योगमाया से अभिन्न सेवामयी । युगल प्रियालाल के योग का आश्रय हो जाती ...उनके योग का विषय हो जाती । अनिवार्य सँग हो जाती इन नन्हीं भावप्रीत कोपल के रक्षण पोषण की ...बलिहार सखियाँ ...श्रीयुगल प्राणन की प्राण सखियाँ । तृषित । जयजय श्री श्यामाश्याम जी ।। 09829616230 । for whatsapp group .

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