संस्कार - तृषित

*संस्कार*

संस्कार वह है जिसे सिखा भी नहीं है और छुट नहीं पाता । अनन्त योनियों मे जीव संस्कार वश पशु है । अनन्त योनियों की पशुता सँग जब चेतना भगवदीय करुणा से मानव देह पाती है तब वहाँ एक संस्कार प्रकट होता है ...  रूदन । इस देह से पूर्व जीव की चेतना   बहुत पशुओं की आकृति में रही परंतु सारभुत बंधनों से छूटने का अवसर पाते ही वह रो पडी मानव होते ही । मानव , का यह प्रथम रूदन बन्धनों से मुक्ति हेतु है (कभी किसी नन्हें बालक को अपरिचित सँग करना होता है तब वह खेलता रहता है ,परंतु माँ के सन्मुख होते ही वह रो पडता है , वह माँ के अभाव में खेल रहा था परंतु माँ के अनुभव से ही रूदन पून: फूट पडता है ) सो नन्हा शिशु प्रकट होते ही रोता है ,वह रूदन अनन्तकाल की पीडा है जिसे वह व्यक्त नही कर पाया है । यह मानव देह भाव अनुभव और अभिव्यक्ति की एक मात्र देह है । परंतु  वर्तमान मानव भावशून्य या तो पशु है अथवा मशीनी उपकरण भर है सो भाव स्थिति सुक्षुप्त है ।
रूदन का प्रकट होना और पून: बाह्य उपचार से क्षीण होना उस रूदन की निवृति नही है । रूदन का उपचार है अखण्ड रूप शिशुता सँग अखण्ड जननी शक्ति की गोद में विश्राम । मानव देह का स्वभाविक संस्कार है रूदन । चेतना का भी एक संस्कार है , वह है ...विस्मृति ।  रूदन स्मृति की अभिव्यक्ति है ,जबकि चेतना जो कि विसर्गित हुई है अर्थात छूटी है ...अभिसारित हुई है , विस्मरण रूपी औषधी सँग रखती है और इस विस्मरण रूपी औषधी का प्रयोग चेतना को करना है बाह्य विस्मृति हेतु और वह चेतना कर रही है स्वभाव- स्वरुप का विस्मरण । अनन्त योनियों का विस्मरण ना हो तब वर्तमान अवस्था का आदर कैसे हो ?? किसी योनि में हम पक्षी होकर खुब चहके है तो अजगर होकर अलसाये पडे भी रहे है । पक्षी से अजगर में आई चेतना भुल गई पूर्व स्वभाव , स्वरूप । जिस जीव से वह भय से भागती थी ,वही अवस्था अजगर रूप हुई तो अपनी ही पूर्वाकृति का भक्षण होने लगा । विस्मरण वर्तमान के अनुभव की औषधी है और समस्त उपचार साधन वर्तमान को प्रकट रस अनुभव करने हेतु ही है ।
रूदन - विस्मरण आदि संस्कार मिलें है सत्य के अनुभव को स्थापित कर अपने मूल विश्राम मे स्थित होने हेतु ।परंतु समस्त संस्कार जीव के उसके ही आत्म कल्याण के पथ में अभिशाप होकर खडे होते है । प्रत्येक जीव का अपना एक नवीन संस्कार है , जो कि मिलता है मंगलमय विधान के अनुग्रह से कल्याण के हेतु । परंतु यह संस्कार चेतना का अनुभव ना होकर दैहिक और संसारिक रहता है , तब इस से छुट पाना सबसे कठिन होता है । जैसे कि वर्तमान में देह पुरुष हो और शास्त्र बोध होवें तब स्त्री देह के हेतु शास्त्र स्पर्श का निषेध आदि कहा जायेगा ।जबकि भुत भविष्य में अपनी ही देह स्त्री होने पर वहाँ पुरुष आकृति के इन व्यवहारों पर आक्रोश होगा ।
यह स्त्री पुरुष रूपी दैहिक संस्कार भी मिलते है चेतना को उसका विश्राम खोजने हेतु । ऐसे ही संस्कार सदुपयोगिता के अभाव में सबसे बडी बाधा होते है , वास्तविक बोध के अभाव में जीव को पता ही नही होता है वह नित्य स्वतंत्र चेतना है और बन्धन तो मात्र एक संस्कार है जिसे उसने स्वयं को ही बाँधा हुआ है । कल्याण हेतु प्राप्त संस्कार बोध और विवेक अभाव में सबसे बडा बन्धन होते है । एक पक्षी आम्र वृक्ष पर बैठ कर आम्र फल का भक्षण करता है परंतु मनुष्य रूपी तथाकथित दिव्य ज्ञान आकृति का भण्डारी जीव ऐसा नहीं कर पाता है ,वह आम्र का भक्षण करते हुये सन्मुख जीव को दुसरा फल पाते देख आम्र का स्वाद नही लें सकता ।
अर्थात जगत का विषय भोग में बन्दी जीव श्रीभगवत आश्रय या भगवत धाम में भी अपने इन जडिय संस्कारों से रसिक कृपा बिना छुट नही पाता । जैसे भेड समूह में एक के पीछे रहकर अपना हित अहित चिन्तन अन्य आश्रित रखती है । वैसे ही मनुष्य समूह में अपना हित देखकर प्रेम की एकांकी अनुभूति स्वयं में टटोल नही पाता । धाम - तीर्थ कल्याण की रचना करते है परंतु जीव अपना बन्धन सँग लिये चलता है ,वह मुक्त स्वतंत्र किसी प्रेमी पक्षी रूपी रसिक का सँग ना कर  भीड हुआ रहता है और भीड को अगर भगवत अनुभव होता तो कुरुक्षेत्र में अश्रुपात की बाढ़ आ गई होती । संस्कारों से पीडित होकर जब जीव अपने संस्कारों से छूटने में असमर्थ होवें, तब ही पार्थ (अर्जुन) की भाँति ऐसी अद्भुत शरणागति होती है ।
मनुष्य का एक और संस्कार है जो कि भावसिद्धि का बाधक है , मूलाधार रूपी लालसा से सम्पुर्ण योग प्राप्त होने पर भी छुट नही पाता , वह बाधक संस्कार है आनन्द का आस्वादन । इस पर भी बात करेंगे क्योंकि यह आस्वादन चाकर (दास)अवस्था में कथित प्रवेश कर भी चाकरी का बाधक है । सार रूप में इसके हेतु इतना कह देते है कि चाकर को स्वामी के महल-भोग-रस-उपचारों में रस ना होकर स्वामी की विशेष सेवाओं से उनकी प्रसन्नता में रस होना चाहिये । परंतु बहुत आगे जीव निज आनंद के आस्वादन में , स्वामी के आनन्द की भावना छू नही पाता । आनन्द का दर्शन करुणता के नयनों से होता है और श्रीश्यामाश्याम के करुण संस्कार को लाँघा नही जा सकता । सो जीव करुणा का अनुभव करता है आनंदित होकर । आनन्द रूपी अभिन्न संस्कार से चेतना छुट सकती है , करुणा रूपी भावना से आत्मसात होकर । तृषित ।आस्वादन रूपी सेवात्मक बाधा पर फिर बात करेंगे ...जयजय । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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