कृपा-दर्शन , तृषित

कृपा-दर्शन

जीव का सम्पुर्ण बाह्य तंत्र क्रिया प्रधान है । जैसे भोजन बनाना होगा तब पाया जा सकेगा । जीव के अपने शरीर में और जगत में बहुत से कार्य स्वतः हो रहे है जैसे पलक झपकना , बालों का झरना ,रक्त संचरण ,श्वसन ,पाचन आदि । ऐसे ही बाह्य जगत में दिन होना ,फिर रात होना , सर्दी में शीतलता होना और अतिशीतल से बचाव हेतु गर्म अन्न और फल आदि होना जैसे बाजरा-तिल आदि । सभी स्वभाविक है ।
मनुष्य की सभी क्रिया जो होती है वह अपने स्वभाव को भंग करने को होती है । प्राप्त शक्ति - वस्तु - साधन का अनादर करने से जीवन का प्राकृतिक तंत्र बिगड़ जाता है । जीवन के इसी बिगडे तंत्र को और बिगाड़ते रहने को साधन नही कहा जा सकता परन्तु भोग वासनाओं के दल में धन्से रहने को कर्म का नाम दिया जाता है । इसी कथित कर्म में लगी शक्ति क्रिया है । धरती पर सभी ही कथित कर्मयोगी है । कर्म होता है जीवन चक्र की नियमितता हेतु । अब मनुष्य ने जीवन चक्र ही छेड़ दिया है , और इस खंडन के पीछे छिपी है भोगों की कामना । अति आधुनिकता कर्म नहीं कर्म से छुटकारा ही चाहती है । कर्म बन्धन से मुक्ति का उपाय है , निष्काम भाव से कर्म । कामना शून्य कर्म , पूरा होने पर फिर प्रकट नहीं होता है । हमने कुछ कर्म योगियों की चर्चा सुनी अग्रिम 20से 30वर्ष में मिलने वाले रिटायरमेंट की चर्चा वहां थी । जहाँ कर्म से छुटकारे की वेदना हो वहाँ कर्म सार्थक नहीं होगा । निष्काम कर्म का ही फल सेवा है और सेवा ही मानव का धर्म है । इससे पूर्व वह व्यथित है क्योंकि धर्म पतित है ।
प्रत्येक कर्म का फल जो मिलता है वह बाह्य जीव तो सोचता है कि उसने अर्जित किया है , जबकि एक शक्ति है जो प्रत्येक कर्म को यथार्थ सिद्ध या असिद्ध करती है । कुआँ खोदने पर ही जल मिल जावे यह तय नहीं , उस धरातल में जल हो भी और धरातल में जल हमने भरा नहीं तो कहीं ना कही सभी कर्म प्राकृतिक विधान से जीवित रहते है । एक विशेष शक्ति ही वहांँ कर्म फल प्रकट करती है जबकि उसी शक्ति को कष्ट दिया जावे और वह फल प्रकट करें यह बाह्य जीव नही मानता । वह मानेगा मैने किया सो हुआ । किया वह जाता है जिसकी रसोई जुटा दी गई है ,अर्थात जल है तो शर्बत बनेगा । कर्म का साधन प्रदान करना ही कर्म में अप्राकृत सहयोग है ।
जल में स्नान करना कर्म है ,  भीग जाना । अग्नि के ताप से सुरक्षित रहना कर्म है  आदि  । परन्तु अग्नि में  ना जलना साधना है , जल में ना भीगना साधना है । जगत में रहकर जगत में ना होना साधना है । साधना प्रकट होती है कर्मबन्धन से छूटने पर । साधना माया (असत)  के सँग का खंडन करती है ,कर्म असत में फल देखने पर बढता है , सो कर्मफल का त्याग कहा है क्योंकि कर्म असत की सिद्धि देखता है जो की है नहीं । जीव क्षणिक प्राकृत देह को सिद्ध समझ कर उस देह के अहंकार से देह हेतु जो साधन करता है उनमें कर्ता बोध मिटना बहुत कठिन है । कर्त्तत्व बोध छुटे बिना अर्थात अप्रयत्न स्थिति (अकर्ता) भाव प्रकट नहीं होता । साधनाये प्रयत्नशून्य कर देती है (अप्रयत्न) । कर्ता भाव छूटने पर ही वास्तविक कर्ता का दर्शन होता है और   उन अखण्ड कर्ता की अनन्त क्रिया शक्ति का दर्शन होता है जिसका नाम है , कृपा ।
कृपा प्रकट होती है , मैं रूपी कर्ता के मिटने पर ।  नित्य अखण्ड कर्ता की लीला रूप । तब मृत्यू भी मृत नहीं कर सकती ,अग्नि जला नहीं सकती , जल गला नही नहीं सकता । कृपा अपनी क्षमता और  सीमा टूटने पर दिखती है ।
अपनी झोपड़ी के बाढ़ में ढ़ह जाने पर जीवित जीव की  दीनता कहती है , कृपा है । अपने-अपने अहंकार की रक्षा करता आज जीव जगत आज अहंकार को छिपाने हेतु नेत्र बन्द कर लेता है सो जीव को कृपा दर्शन नहीं होता है अत: क्षमा । प्रथम मैं करता हूँ , कर सकता हूँ ,करूँगा यह मिटा दिजीये । वास्तविक कर्ता और उनकी अखण्ड नित्य लीला शक्ति प्रकट होगी । वही दृश्य कृपा है । कृपा जब ध्वनित होती है तब नित्यलीला सँग होती है ,प्रपन्च में और धँसना कृपा नहीं है । अपितु दिव्य चिन्मय सौंदर्य में डूब जाना कृपा है ।
कृपा ही वह सिद्ध कर सकती है जो जीव के सामर्थ्य से अस्पर्शित है , कृपा ही भावदेह का स्पर्श दे सकती है । कृपा ही असंग से नित्य सहज रसमय सँग तक लें जा सकती है । पर कृपा  का अहम से सँग नहीं है , वह गलित भीगी झरित स्थिति का स्वरूप स्वभाव रूपी फूल है । कृपा मधु पुष्प है , मधु छिपाया पुष्प नहीं ...मधुपुष्प । मधु भी सहज स्वरूप नहीं छू सकता उसे पात्र चाहिए और मधु को मधुतम करती कृपा की माधुरी रचती है मधुसुदन वपु । मधुता का करुण उद्रेक जब आकृति लेता है तब वह अपरिमित माधुर्य झरण का अभिसार करता है । प्रेम का स्पर्श कृपा से ही है क्योंकि वह मधुतम वपु के मधुसंग की उमंग भरा है । प्रेम तक वही पहुँचता है जो स्वयं छूट गया है स्वयं से कहीं । खोजिये कोई असमर्थ तृषित जो भीगा हो कृपा वर्षण की गहन लहरों में ,  ...शेष तो मैं को सुरक्षा देते हुये ही सब अपने-अपने सिद्ध हो ही जावेगें कभी ।
तृषित । जयजय श्री श्यामाश्याम जी ।

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