शरणागति या जगत , तृषित

3वर्ष पुरानी वार्ता यह...

हे नाथ ! यह शरणागति क्या होती है पता नहीँ ।
बिल्ली के नन्हें शिशुओं सा आप के लिये आसक्त चित् नहीँ , कि आप ही उठाओं और जहाँ लें जाना है , लें चलो । इतना प्रगाढ अपनत्व ।
बन्दर के बच्चों की तरह मजबूत पकड़ भी नहीँ , कि हम कस लें आपको आप जहाँ जाओ वही हम हो... हाँ उतनी पकड़ संसार से है , दशा उस बन्दर सी है जिसका हाथ चने के दानों के लिये पात्र में फंस गया , दाने छोड़ दे तो पात्र छुट जावें , पर दाने कैसे छोड़ दे ? विषयभोग प्रपंच छोडा जा सकता यह मैं उससे बद्ध जीव किसी विधि से स्वीकार करता ही नहीं नाथ ।
युंँ कहने को तो 24 घण्टे कह सकता हूँ कि हे नाथ मैं तेरा हूँ । अपना कुछ भी नही मेरे पास , तेरा ही सहारा है ।
तन-मन-धन सब कुछ है तेरा ,क्या लागे मेरा । पर कहने में ही क्या है ? यह कहना तो प्रदर्शन है । वस्तुतः मुझे लोभ रहता है कि मैं आपको मन ना भी दूँ तो माना यही जावें कि प्रगाढ अनन्य मेरी तुममें प्रेम-समाधि लग गई है ।
कभी ऐसा काल था कि व्यक्ति कहता नही था , और मौन ही प्रीति को जी लेता था । कह दिया तो निभाता भी था । आज मानव शब्द शक्ति से परिचित नहीँ । वचन का महत्व नही ।  असत जगत की रूपरेखा ही असत्य है गुन्थी हुई है ।
जीव को देखिये , प्रीति को झुठलाना है तो प्रभु जी की प्रीत झुठला दो । कह दो कि मै तो तन-मन-प्राण दे चुका हूँ आप का ही द्वार बन्द है । ...क्या करोडों खर्च कर जागरण कराने वाले हम, जो प्रभु की प्रीति पर अपनी भक्ति बडी कहते हुये प्रसिद्ध गीत गाकर झूम-झूम कर रोते हम सत्य में ही दीदार चाहते । या आज गरबा कल दीवाली,फिर कोई शादी ,फिर युं ही जीवन और एक दिन जब बिस्तर पर समीप कोई ना हो तब कहेंगे कि आये नही तुम ,हम थक गये पुकारते हुये ।
श्रीप्रभु कहाँ नहीं है , उनके प्रति अभिनय चल नही सकता । तब भी भक्ति का अभिनय आज एक स्टेट्स है । जगत का भोग छुट नही पाता और वो मिलने भी आवे तो हमें समय भी तो नही । आज मनुष्य सोचता है जो उन्हें दिखाऊँगा वहीँ दिखेगा , उन्हें सब दीखता है , हमारे हर ख़्वाब-ख्याल की कतरने दिखती है । सब समझते वें ।
हम बस कहते रहते कि ...सब कुछ तेरा ... सब कुछ है क्या ? झूठ - कपट - छल - पाखण्ड - लोभ - दम्भ - भोग आसक्ति , यही तो है हम में भरा हुआ । यह सब कुछ उनका ... ...! देने को उनके उचित वस्तु है ही कहाँ ???
चलो जो भी  है ,सब कुछ है उनका । जैसे लोक कथाओं में पुरानी हवेली के खण्डहर में भुत होते है , हवेली बिकते ही भीतर के भुतकीड़े - छिपकली , मकड़ी , जाले न जाने क्या-क्या सब बिन बेचे बिक जाता है , सबका मालिक फिर नया खरीददार हो जाता है , वैसी दशा हमारी है । परन्तु हवेली की तो सफाई नया मालिक करा लेता है ।
हम तो अपने दोषों के प्रति आसक्त है , हरि छुडाना भी चाहे तो हम छोड़ने वाले नही है ।
रोज कहेगें सब कुछ  तेरा परन्तू पलक का बाल भी झड़ कैसे जावें हमारा । श्रीहरि हेतु हम शरीर का एक सुख भी बिसार कर  दास बने सदा सतर्क क्या है ??? सब तेरा कह कर हम श्रीहरि रूपी चौकीदारी चाहते है । अब तो दान की महिमा  में बलि प्रसंग युं ही सुनाया जाता कि जो दान करेंगे तो श्रीहरि चाकर होंगें । और यहाँ बहुतों की तिजोरी के आस पास तो सभी देवी देवताओं को कोतवाल बनाये रखा जाता है । रक्षा और पालन करना श्रीहरि का धर्म ही है परन्तु यह रक्षा है नित्य होती दुर्गति से- विषय-दोषों से ।
शरणागति युं स्वभाविक घटती है ,उसकी तैयारी सम्भव नहीं । उनके अनन्त प्रेम-रस-अपनत्व के सन्मुख स्वयं हार जाना (नतमस्तक हो जाना) शरण में आना है । जो उनकी ही जीत स्वीकार कर लें । और उनकी ही जीत को सिद्ध करने हेतु अपनी हार को पहचान सतर्क बना रहे । जीत हार शब्द इसलिये कि हमें उनके हेतु ढह जाना है ,पिघल जाना है । और यही प्रेम है ।
वैसे भी हम भोगियों को विचार कर शरणागत होना चाहिए ।
दुखःहरणदेव श्रीहरि को , हमारे भगवत् पथ की बाधा ही दुःख लगती है अतः जो बाधा है वह हट जाती है और हम कहते है जो उनका होता है उसका दुःख बढ़ जाता है , सब चला जाता है (पथ में जगत रूपी स्वांग हो हटा कर वें दुःख मिटाते है )। असत की सत्ता से दुःख है ,सत्य के सँग में सुख है ।
उनके नेत्र सत्य पथ ही देखते और वह पथ को ही विकसित करते है , हम कह तो देते है पर क्या होना चाहते उस पथ पर ?? क्या केवल श्रीहरि हमारी जीवननिधि है ????
हरि असत्य का श्रवण भी नही करते , जो कहा गया वही सत्य जानते है , असत्य की सत्ता उन तक नही जाती । अतः हम अपने मिथ्या कहते भी तो वह परम् शक्ति कहती "तथास्तु" । जीव सुग्रीव की तरह बातें बनाकर कामनाओं की पूर्ति पर एक मात्र मित्र श्रीराम और उनकी हियआह्लादिनी के वियोग स्थिति को भुला रहता है , श्रीराम असत्य नही पहचानते , उनके प्रेमी नयन सत्य को समझते है । हम श्रीहरि की सत प्रीति के बल पर असत जगत का विलास ही सर्वस्व माने हुये है । अधिकतम जगत केवल भोग लोक के सुख हेतु भगवत-पूजन सेवा करता है । जबकि शरणागति में स्वहित तत्व का चिन्तन है ही नही ।
दुःख हरो , दारिद्र्य हरो , कष्ट हरो आदि आदि देना चाहते तो कैसे फिर ऐश्वर्य और आनन्दमय जीवन की शरणागति कर सकते है , एक कांच की गोली भी खो जावें तो प्राण हमारे निकल ही जावें , गजब का समर्पण है हमारा । शरणागत स्थिति  श्रीहरि सुख हेतु कठपुतली की तरह उनके द्वारा उनके ही निमित्त नृत्यमय जीवन है ।

एक और बात वास्तविक शरणागत भौतिक जगत में क़दम रख भी दें तो माया भगवती उसे लौटाने हेतु विचित्र लीला करती है , हरि की तरह हरि की यह वस्तु भी सत्य की भाषा ही समझती है और जगत असत्य का त्याग कर नही पाता , जगत के नित नव असत्य वचन को सत्य ही जानने से छलिया का छल हो जाता है ।
ऐसी दशा में जगत छले उससे बेहतर है साँवरे सरकार नेत्रों से छलते रहे , श्रीहरि की वस्तु को कोई छल कपट भी करें तो क्यों ? छलिया के छ्ल  सा सुख जगत के छ्ल मे है कहाँ ??? ।तृषित । अपनी बनाई दीवार ढहा कर यहाँ आगे बढ़िए -- जयजय श्रीश्यामाश्याम जी।।

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