अभाव की शक्ति को समझो , तृषित

अभाव की शक्ति को समझो सखी । अभाव है कि वह आते नहीं ।  आते तो रहते नही । हम अभाव के पुंज है । वह महाभाव पर बिराजते है ।
इस अभाव को जानकर स्वयं को हटा लो । स्वयं से स्वयं को मुक्त कर कहो कि यह कुँज आपकी हुई । दोनों खेलिए । वह थोडा झिझकेंगे ,उन दोनों के हृदय (दिल) सखी को मनाओ । सखी उनका दिल है , हिय है । दिल माना तो आ जायेंगे । यह दोनों संकोच करते । वस्तु इनकी ही हम ,पर युगों से हमने मै को पकड लिया । एकाएक इनकी वस्तु लौटाते तो भी हम थोडी बेमानी करते कि उस वस्तु सँग हुआ खेल हम छूना चाहते ।जबकि हम केवल अभाव है और ये दोनों महाभाव । अभाव का बोध होते ही महाभाव भरने लगेगा पर यह देखने लगोगी कि क्या महाभाव भरा मुझमें तो वास्त्विक अभाव होगा । कुछ न मिलेगा ।अपने अभाव को पक्का सच मान लो और इनके महाभाव को पक्का सच । भविष्य में महाभाव का कोई सर्टिफ़िकेट मिले इनके चरणों मे अर्पण करो । क्योंकि हम केवल केवल केवल अभाव है , हमारा होना अर्थात इनका ना होना ।
इनका दिल समझो , इनका दिल सोचो ,इनका दिल हो जाओ अर्थात सखी (हित) (हिय)।
आंसुओ को बाहर मत बहाओ अपनी हिय बगिया धो उससे । बाहर क्या दिखाना , सर्टिफ़िकेट का कोई काम मत करो । कभी मत करो ।जब ये हिय पर बिराजे हो तो सखियों के पीछे रहो । अपने ही हिय में सबसे पीछे । सखियाँ सब उदार है श्री युगल की ऐसी ऐसी सेवा करा देगी कि अपनी चाल से कभी न होगी । सखी स्वभाविक आगे कर देती ।पर स्मृत रहे , भीतर अपने को हमें सबसे छोटी किंकरी माननो । बाहर जगत पुछे कि भीतर कौन क्या ,किसे देखी तनिक बताओ तो कहो जैसे ब्याह होने पर झाडूदार अगले दिवस आवे ,वें क्या जाने कौन कौन ? केवल दूल्हा दुल्हन चमकते दिखे । कोई सखी अपनो स्वरूप स्वभाव प्रकट ना होने देगी सो मत करो किसी का स्वरूप किन्हीं के प्रश्नो पर उजागर । हाँ कोई प्रेमी हुआ तो तुम्हारे हिय में बिलौनी की तरह सब बिलो कर अनुभव कर सकेगा , यहाँ कह दूँ कि प्रेम की बिलौनी बाहर आती नहीं फिर डूब जाती उसी माधुरी में ।
मधुर सदा माधुरी जू को मानो । प्रेमी सदा श्रीश्यामाश्याम को । कही न कही जीव स्वयं को महप्रेमी समझे सो जे दोनों प्रकट ना हो । इनको प्रेमी माननो है । हम कहे न भक्त-सेवक-प्रेमी सब इन्हें मानो । हमारी स्वामिनी सो कोई नही ,उनके पिय सो भी कोई नही ।बडी रसीली जोडी पाई है । रसिकन के पद धो धो के पियो । सच में रसिकन को सच्चो आदर वें ही करे जिनकी बात बन गई हो । शेष तो रसिकन को तोले , अपने परीक्षण सो परखे । जिन रसिकन की हियकुँज में जे दोई बिराजे है उनसे वाणी से विनय ना करो ,हिय में विनय रखो । मानो कि भीतर श्यामाश्याम ,सेवा उनके श्री चरणों में ऐसे हिय से सेवित हो जाओ कि चरण नहीं कुँज की देहरी (चौखट) है । सब भाव भीतर रखो ये ,अन्य में जो उन्हें बिराजे देख सकें मानो बन गई बात । जिन रसिकन के हिय में बेठे है उनसे कहनो तो प्रदर्शन है ,आन्तरिक विनय सो यह स्वीकार है कि वें भीतर है तो बस उनके श्री चरणन को चरणामृत अर्थात युगल की चौखट की धोवनी को सार । विनय करो श्री युगल से कि रसिकन हिय में नित दर्शन युं पाऊं , यह विनय ना करो मेरे भी... । जैसे कुँवर-कुँवरी अपने आवास मे सुखी है ,हम जीव की कुटिया छोटी है ।सो विनय करो कि आप रसिकन के हिय से युं ही झाँकते रहे जैसे महल की अटारी । बस यह विनय करी कि अटारी की सुगंध अपने हिय से आवेगी । प्रार्थना - भावना - सेवा को आदर कर महतजनों को अर्पण हो । कहीं कोई उद्धाटन होता तो अतिथि ही सब परम्परा निभाते ।अपने तो निम्न दासी बने रहनो है । यह ना सोचो कि अपनी नही सोचे तो भूखे मर जावेंगे । सबकी भावना को आदर देते ही श्री युगल आपके हिय फूल से खडे होते ही नहीं ।  जितनी प्रबल सखी है उतनी उदार है ,मेरी किशोरी सबसे उदार है । सो उदारता से भरी रहो । मेरी हिय कुँज में आ गये तो सो सदा सतर्क भी रहो । और सबकी हिय कुँज में है सो सम्पुर्ण आदर वहां जैसे चौखट पर दण्डवत करते सो सबके भाव को आदर ।  आदर देत ही सादर वे आमंत्रण पढ लेते है । युगल की परिपाटी रसीली है , वहाँ कृपणता नही है । वहांँ सखियों में कोई ताला-चाबी नहीं है । सब परस्पर हिय सेवा को सजाये परस्पर आगे करती ,सेवा देती रह्वे । वहां सखी स्म्भालो री यह गूँज है ,इतनो सरसत्व मधुरत्व टपटप भरो रहे युगल निकट कि समीप होने को साहस ही शीतलतम तप है । अति सरसता- शीतलता-मधुता सही नहीं जावे सखियन सुं ,सबहिं फूलन के गुच्छन सी सटी भई परस्पर मधुसेवा देती बडी सरस होई रह्वे । तृषित ।जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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