मेरा पथ - इनका प्रेम । तृषित

मेरे पथ में यही अन्तर है ,कि वह मेरा प्रेम नही है । इनका प्रेम है ।
सच्ची बात है , हमें ना प्रेम हुआ , ना होगा और जिन्हें है ,उनसे ना छुटेगा । ना छुट सकता । प्रेम प्रकट होता है प्रेमास्पद का प्रेम प्रकट होते ही । अपने प्रेम को आप जला कर इनका प्रेम देखिये , सामने खडे होने के साहस के लिये नेत्र ना होंगे । मैंने देखा इनका प्रेम , तब सन्मुखता से प्राण निकलते ... नीन्द में भी यह छेड़ देते तो सोते सोते हिय भीगता ,बाहर नही ,भीतर का रूदन । कि क्या दूँ इन्हे ??? और ये नित्य तृषित कलेजे से लगाये रखो बस । प्रारम्भ में समझ ना आया कि इतना प्यार लाऊं कहाँ से?? छटपटाहट रहती । इनसे एक भुल हुई ये मुझे मिल गये । मुझे पता होता किस ओर है तो मै उधर कदम ना रखता । इनसे मिलने बाद मेरा जीवन , तमन्नाएं , चाहत ,दुनिया सब छोटी होती गई । एक बात समझ आई हर पल लाड़ करो तो भी ये बैचेन होते जाते । इन्होने ही अपनी प्रीति की दवा बताई , वही इन्हें और इनकी प्रेम तृषा को सम्भाल सकती है । इनकी ही तृषा इनकी प्रिया को छूकर सजाकर लाई भीतर ,अब दोनों सँग है । अब वह ना होती तो ही तंग करते है बस ,पर अब पता है कि इनको प्यार कौन दे सकता , कैसे दे सकती ??
अब छटपटाते है तो उनका नाम ,उनकी छबि सन्मुख रखने पर या सजा कर इनके सन्मुख ले आने पर इनका उन्माद बाहर नही सताता । वही सब यह कभी कहलाते ।
कुल मिलकर प्रेमी एक है  ...यही ।
इनसा प्रेमी ना मैने देखा । ना मुझे देखना । ना मुझे होना । यही है प्रेमि अपनी प्रिया के । इतने प्रेमी कि केवल यही माधुर्या कोमलांगी के नित्य हियमणि है । इनके अतिरिक्त कोई प्रेमास्पद किशोरी का हो नही सकता ऐसी प्रीति इनकी कि श्यामा जू को पा चुके है । अहा । हम इन दोनो की दासी । स्यामाजू को सजाने जो चली वह केवल दासी । यह श्रृंगार होता केवल प्रेमास्पद हेतु । बहुत लोग अब हमें कहते ,श्यामा जू चाहिये । बहुत कहते प्रियतम चाहिये । दोनों को जो चाहे वही ये होते ।श्यामा जू आती जब वह पुकारते ,तृषित होते भीतर । वाणियों में मान के पद में श्यामा जू प्रियतम की व्याकुलता से ही आती भीतर भाव कुँज में । ये प्यारे आते केवल प्यारी वास्ते । कौन दे सकता प्यार इन्हें ,हमने कहा न सोते को जगाकर कहते थे ... ओ मोहे प्रेम दो ।   नहाते धोते ,चलते फिरते ,जीव को साथी चाहिये प्रियतम वह पा नही सकता । 24घण्टे भी टकटकी लगा कर स्वयं को बिछा दो तो भी अनन्त सृष्टियों की सुंदरतम स्वरूपाकृति को नयन क्या , मन नहीं छू सकता । यह नाम से भी छूने मे आते किशोरी सुगंध होने पर । हृदय पर बैठते किशोरी की प्रतीक्षा में । किशोरी नित्य निभा सकती और इतना प्यार देती इन्हें कि प्रति क्षण यह किशोरी रस सुधा की एक बिन्दु छुते ,जैसे बरसती हर वर्षाबिन्दु का स्पर्श नही होता वैसे ही किशोरीजू की अथाह प्रीति में यह भीगे रहते और सम्पुर्ण बिन्दुओ का सविस्तार आस्वादन करने हेतु तृषित होते जाते ।किशोरी जू की एक एक क्षण में बरसती रससुधानिधि सघन होती जाती और एक एक बिन्दु के आस्वादन हेतु अनन्त किंकरी मंजरी श्री प्रियतम को प्रिया की अथाह प्रीति का आस्वादन देने हेतु नव-नव कुँज सजा कर आमंत्रण देती , कुँज अनन्त - सखियाँ अनन्त ,आस्वाद्क श्री प्यारीप्यारे एक ही होते । ऐसा न होता कि किशोरी से भिन्न कोई इन्हें प्रेम दे सकता , एक क्षण इनके नाम से उन्मादित जगत इन्हें  प्रकट होने पर मधुता से गलित हो जावे । क्या दे सकते हम ??? रसिक सन्त इनका नाम देते ,कहते कुछ नहीं उस पुकार से कभी ये आ जावे तो उस समय आप हम होते नही वह कोई और नई मुर्ति होती जो यह ही बनाते अपने प्यार से ,प्यारे नाम से । छबि नहीं निहार सकते हम इनकी , इन्हें निहारने हेतु भीतर इन्हें ही निहारने वाली हो । वह नयन है जिन्होनें इन्हें ही मधुता पिलाई हो , स्मृत रहे प्रेम पथ यह आयेंगे तो मधुता पीने आएंगे । वह मधुता केवल किशोरी है । जीव सोचता है मिलकर आनन्द लेगा , मिलते ही यह इतना प्रेम मांगेगे कि रोम रोम मछली की तरह छटपटायेगा इनकी व्याकुलता के सँग से । केवल किशोरी इन्हें प्रबल रस दे सकती । वह सहज मधुर है , मधुरा है , माधुरी है ,माधुर्येश्वरी है । श्रीरसराज को रसदान करती मधुरांगी है महाभाविनी। पृथक पृथक इन दोनों को अनुभव करने की कामना महा-अपराध है क्योंकि भीतर आये हुये अतिथी का सुख भी तो हो । परस्पर यह परस्परता में नित्य सुखी है , नित्य दोनों प्रेमास्पद हेतु तृषित है । तृषित। जयजय श्री श्यामाश्याम जी ।

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