सम्बन्ध , तृषित
*सम्बन्ध*
अनन्त खग प्रजातियों में कितने पक्षियों का संवाद मैं समझ पाता हूँ । किसी का भी नहीं न ।
और कौए के परिकर समझते न उसका भी संवाद ।
क्या कभी किसी द्रुम बेल ने अपनी कोई आंतरिक बात कहीं मुझे ?? ...नहीं । क्या वह सत्य में मूक है ? ...नहीं ।
मैं अति वाचाल हूँ , उन्हें सुनने के लिये मेरा ठहरना आवश्यक है और किसी खग , लता-फूल से बात कर सकूँ इसके लिये उनसे अपनत्व परमावश्यक है ...सम्बन्ध ।
सम्बन्ध से परे शब्द को हम कहते है *शौर* । सम्बन्ध से भरे रुदन-कोलाहल-उन्माद-हुड़दंग सब प्रिय है । मूल में हम सम्बन्ध को ही अनुभव कर पाते है ।
वस्तुतः सर्व रूपेण श्रीहरि से हमारा नित्य सम्बन्ध है अतः उनकी अनुभूति सर्व ग्राह्य वस्तु है । परन्तु हमारा पात्र सँकोच करता है , सम्बन्ध अभाव में हमारी स्थिति ठीक वैसी जैसे कोई गिलहरी फ़ँस गई हो किन्हीं सुंदर बालिकाओं में , वह गिलहरी है अतः सँकोच करती , उसका मन करता छू लूँ पर बालिकाएं स्वयं भी छूने को भागे तो वह दौड़ जाती । सम्बन्ध-अभाव यहाँ परन्तु मूल में एक आकर्षण भी , वह क्या है परस्पर एक सी सहजता । जातीय भेद पर स्वभाविक एकता सो आकर्षण होता हमें तितली - गिलहरी - फूल - पक्षियों में । वह जो जीवन सहजता से जी रहे वह मूल में मानव का लोभ है । परन्तु भोगविलास मयता से अहंकार रूपी अनन्त अदृश्य दीवारें खड़ी है । मूल में हम में कहीं भी द्वेत है नहीं , सब एक ही सिन्धु की बिन्दुएँ है परन्तु सिन्धु शब्द की सिद्धि तो तब होगी जब बिन्दुओं का पृथक अस्तित्व खो जावे सिन्धु में । तब कहीं बिन्दु-बिन्दु में भेद नहीं होगा । मेरा विषय-रुचि फ्रेंचभाषा हो तो वह मेरे लिये सरल होगी कभी , संस्कृत हो तब वह । लालसा गति करती सम्बन्ध पर , अपरिचित वस्तु कितनी ही सुंदर हो जब तक वह अपनी न होगी उसके सौंदर्य का अनुभव होगा ही नहीं , यहीं अपनत्व की महिमा है ...यह गाढ़ अपनत्व ही स्वरूप का दृष्टा है । जितना गाढ़ अपनत्व होगा उतनी सरस भावमयता गाढ़ दृश्य होगी । किन्हीं की लौकिक बात भी हिय पर ऐसे हमें लगती जैसे भगवत संवाद हो ...नयन सजल हो जाते । किसी भी माँ को शिशु की तोतली बोली से प्रेम होगा अपितु किसी के सरस् सुरमय स्वर के । अपनत्व की महिमा है ...!!!
परन्तु मूल में हम यहाँ ही गलती करते , मेरी बात सुनने के लिये मुझसे अपनत्व की आवश्यकता नहीं ...जिस आश्रय-विषय की वह बात उनके प्रति एकता आवश्यक । क्या भगवत नाम पुकारते किसी स्पीकर से पृथक प्रेम या सम्बन्ध आवश्यक हुआ , वैसा ही स्पीकर रूपी वस्तु यहाँ कोई होवे मूल में वह रस जिनका उनके प्रति अनुरागित लोभ हो तो रसमयता होगी । स्पीकर तो वस्तु है प्रकट नामामृत रस है और मूल सम्बन्ध उसी वस्तु से हो तब कहीं जाकर वह ऐसा उत्कर्ष देता कि निज प्राणों का ही पोषणीय रस-भाव हो जाता । और निजपोषण के लिये लोक में हुए अपराध ही हम प्रायश्चित नहीं करते तब यह तो पाप-पुण्य से परे प्रीति पथ । क्या कभी हमने चिन्तन किया हमारे घी-माखन के लिये कोई बछड़ा अपने पोषण से छूट गया , वहाँ निज पोषण ही स्वभाविक-धर्म रूप अनुभूत है , यह तो कोई कहे तब सोचते हम ।
निज प्राणों का पोषण सत्य में होता अपनत्व से , आपका लौकिक संवाद भी पोषण देता उन्हें जो आपको अपना समझते और मेरे भाँति किसी तृषित के हिय भाव से झरा आपका ही रस आपको वह सुख नहीं दे पाता क्योंकि यहाँ एक स्थूल दायरा , सम्बन्ध का । मूल में वह रस आपका है और क्या कभी हमने प्रसाद के लिये दौनपात्र आदि की जाति जांची । प्रसाद से पूर्व श्रीहरि की तरह कहा कि यही पात्र हो तब पावें । क्योंकि वहां हम प्रसाद से अभिन्न है , पात्र की अभिन्नता आवश्यक ही नहीं । हां सिद्ध रसिक रीति में पात्र भी मेरा होता , मेरा अर्थात मदिय रस प्रदाता जैसे ब्रज माटी का करवा , केले के पत्ते , पलाश के पत्ते । परन्तु भोग जगत कभी रसलोभ में पात्र चिन्तन करता ही नहीं , अब वह जमाना नहीं जहाँ आप अपनी थाली गिलास लेकर कहीं भोजन पर जा रहे हो , रसिक तो यह भी निभा रहे । वह पात्र नहीं बदलने का भी संकल्प लें लेते ।
बहुत से ऐसे बाहरी कारणों से हमारी बात आपके लिये रसमय होती नहीं क्योंकि वह रस आपके हृदय का पोषण है यह तो जब अनुभव होवें जब सुना जावें और सुनने से पूर्व मेरा ही यह रस है यह भाव हो । ऐसा न हो कि यह इस पथ , सम्प्रदाय , व्यक्ति , आदि द्वारा कहीं बात है । श्रवण रस है परन्तु मदियता (मेरापन) लगे तब ही । वरन संसारी तो प्यास लगने पर और बार-बार कहने पर भी यहीं कहता न जी अभी अभी पी कर आये है क्योंकि सम्बन्ध अभाव वहाँ । प्यास जिस वस्तु की है वहीं वस्तु किसी पात्र द्वारा आपके निकट आवे तो यही धारण कर पान करें , मेरा पोषण है । वह पात्र अपना पृथक रस नहीं देगा क्योंकि ब्रज का करवा नित चातक स्वयं प्रति तत्व झरित उस भावरसावली अनन्त-धारा का । नित्य तृषित वह । दौना जितना सूखा होगा , उतनी ही महक होगी ग्राह्य वस्तु में । ऐसे ही माटी के पात्र में महक होती तनिक सी वह महक आपकी नित्यता पर असर नहीं डालती अपितु वह पेय वस्तु को स्वभाविक सजा देती और माटी में माटी की खुशबुएँ गूँज उठती । मूल में आप मे सभी तृषित है । अतः पात्र भेद भी मूल में है नहीं , रसमयता का आस्वादन भी अभिन्न होवें जब रस के प्रति निज पोषणत्व अनुभव होवें । माटी के करवे में दूध - लस्सी पीकर सुगन्ध देने पर भी वह पात्र सदा असंग है न , खाली हुआ और गया कूड़े में , तो पात्र से भय का भी सवाल नहीं । पात्र रिक्त हुआ हम स्वतः उसे तज देते यह सब स्वभाविक करते हम । मूल में मेरे लिये भी यहीं हितकर की मेरे प्राणों को औषध करता यह भावामृत सुरापान वह जो सजाते वह अपनी सुगन्ध से ही अभिभूत करें श्रीयुगल चिन्तन से पृथक मेरी कोई कीर्ति-महिमा-गति न हो सकती है ...ना होगी । वो करवा जानता है यह लस्सी करवे में है पर करवे की नहीं है ....आस्वादक है अनन्त हियकुंज वासी श्रीयुगल-तृषित प्राणप्यारे सुकोमल-फूल ! तृषित! सम्बन्ध की महिमा से रस की अनुभूति होती है , सम्बन्ध है तब ही रस का रसास्वदन समर्थ भी होता है वरन माटी न पी जाती स्वयं में भरा हुआ रस .... कभी मिट्टी का पात्र आप ही दूध-लस्सी पीता क्या ???? पीता है... पर प्यास जितनी उतना ही । सम्बन्ध का तात्पर्य है पात्रता , रस का अभाव नही रहता ... पात्रता का अभाव होता है !! जयजय श्रीश्यामाश्याम जी
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