गोपी भाव की वास्तविक गति , तृषित
जीव के लिये भोग विषय से छुट कर अति दुर्लभतम प्रेम रस में भरित गोपी भाव जिसमें वह प्रियतम सँग रागात्मक है ...जहाँ प्रियतम से सघन निजता है । मादनख्या भाव है जहाँ । किन्हीं को प्रियतम सँग कान्ता भाव भी है ।
प्रियतम से प्रेम के सभी भाव भक्ति के आयाम है , और अति दुर्लभ है ।
परन्तु जगत का मोह छोड कर इन स्थितियों तक आना जैसा दूभर है ... वैसा ही इन भावों से अति उच्च दिव्य निकुंज रस की भावना दूभर है । प्रेम भावविकास का पथ है ... स्वघोषित प्रेम स्थिति से वास्त्विकता सन्मुख होकर भी मूक होती है । आस्वादनीय रससार मुर्ति श्रीमनहर की प्रियता में भरित कई भाव स्थिति मेरे पथ में आ रही है , कारण है कि वहाँ प्रेम का प्रकट स्वरूप में गोता लगने पर भी वास्त्विकता शेष है... वह वास्तविकता है *श्रीप्रिया चरणाश्रय सेवा लालसाएं* । प्रियतम की निजता जब मानिये जब दिवारात्रि यह स्वयं ही अपनी निजप्रिया का यश हिय में झुन्झुना रहे हो , यह केवल निजप्रिया का यश गाते है और उन्हीं की सेवाओं की स्वप्नलालसा इनमें भरी होती है , बेचैनी शान्त हो गई हो प्रियतम सँग से तो अभी प्रियतम ने स्वीकारा ही नहीं क्योंकि इनके सँग से तो बैचेनी प्रति क्षण नवीन होती जानी चाहिये ...यह रसिक प्रियतम नित्य तृषित आकुलित समुद्र है ।
भोगी जीव का भोग मिटता है वास्तविक भोगी के दर्शन से , प्रेमी प्रियतम निश्चित भोगी है परन्तु जीव और उसकी भावयात्रा प्रियतम का भोग ना होकर ,अपने सुख का भोग लगावे भी तो पथ पूरा नही होता । रसभोगी युगल जोरी की सेवा ही हमारी भावयात्रा अविराम विराम विश्राम सिन्धु है । रसभोगी युगल की मोहकता और सौंदर्यता-लावण्यता का जीव भोग ले रहा हो यह स्थिति भक्ति नही है , रसभोगी प्रियतम की प्रेम तृषाएँ प्रकट ही वृन्दावनिय रसिक-रीति के आश्रय से होती है । जिसे सन्मुख प्रियतम की तृषा ही ना दिखें वह अभी तक प्रेमी हुआ नही क्योंकि अभी प्रियतम ने निजपिपासाओं का समुद्र ही ना खोला है वहाँ । श्रीप्रियतम की तृषाओं की भी बीजबिन्दु से तृषाओं के समुद्र तक की सेवा श्रीप्यारी जू करती है । अभी तो भोगपथिक को प्रेमी प्रियतम की प्यास ही ना दिखी और वह चिन्तन करें उस तृषा (प्यास) का जो उनकी प्यास की फसल का सम्पुर्ण पोषण रक्षण सजाती हो । श्रीयुगल परस्पर तृषाओं के भोगी है और इसलिये ही नित्य भोगी है क्योंकि तृषाओं में नित्य सघन नवीनता ही हो रही है ...प्रेमास्पद के सुख दर्शन की तृषा ।
चूँकि मेरे द्वारा इन स्व घोषित प्रियतमाओं को ही श्रीप्रिया प्रीतिरीति के पाठ को रसिक रीति से श्रीयुगल सुनाना चाह रहे है , कुछ भौतिकी प्रेमी निर्मल प्रेम में निजता ना पाकर भौगोलिक प्रेमी ही रहना चाहते है (युगलप्रीति को ना समझने का बहाना बनाकर)... श्रीप्रियतम से प्यार है तो स्मरण रह्वे उनकी नित्य रस में सेवाएं अनन्त है प्रेमी की सेवाओं से आत्मीयता होवें ही और सभी सेवाओं की सेवा श्रीजी के पास सुरक्षित है ...वह सेवा ही है , सेवा को समझिये ...सूक्ष्म अहंकारों से जितना जल्दी छुटे अच्छा है ।
मेरी वाणी सेवा में युगल सुख है , जीव के स्वांग को सुख वहाँ ना होगा ।
इस जीवन में गोपी भाव समझ लिया है तो इसी जीवन में रसिक रीति से श्रीयुगल नित्य सेवा भाव भी समझिये । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
गोपी भाव स्वयं में गोपी अनुभूति (कृष्णप्रिया) से ही पूर्ण नही होता है । गोपी भाव में श्रीकृष्ण सुख लालसा का वर्धनमान अनुभव हो , वही लालसा का मूल बीज और विश्राम श्रीकिशोरी है ।
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