अनवरत रस दर्शन को कैसे बनावें ?? तृषित

*भजन के समय भाव में जब कोई झलक सी आती तो धक्का सा लगता ह्रदय को और नेत्र खुल जाते,  नेत्र न खुले वहां टिके रहे उसके लिए क्या करें?*

...अति प्रगाढ माधुर्यता है वहाँ ।  होगा ऐसा । भजन लालसा से ठीक बनेगा । ऐसा हो तो भजन ऐसे ही कीजिये जैसे किवाड बन्द हो और आप प्रतिक्षा में हो । भजन उपरान्त तत्काल प्रिय कोई रसिक वाणी पद पढिए ।
अपनी दृष्टि के कमजोर होने पर चश्मा पहना जाता है सो रसिक वाणी ही चश्मा है और वाणी रूपी चश्मा असर करें सो भजन प्रगाढ लालसा से होवें । वाणी की झाँकी बनी रहती है , और मधुरता का स्वाद कम भी नही होता ।

माधुर्य का श्रृंगार नयनों में करने से नयन चिपछिपे होंगे ही । मधु नयनों में भरने पर थोडी देर नयन खुलने में मधुतम सा कष्ट होगा ही ।
फिर जब नयन इस माधुर्यता से अभिन्न हो जावेंगे तब मधुतम दृश्य की प्रगाढता है यह भावना मधुतम सेवा में भरती जावेगी ।
निहारन में सेवा भरी होवें तो निहार बना रहता है , दुल्हनी जू को सेविका ही निहार पाती है अथवा प्रियतम । सो दूल्हा दुल्हन की सेवा भरे नयन होवें । और वाणियों में रसिली सेवा भरी ही रहती है ।

मधुरता सघन अनुभव होती जाती है और रसवल्लरि युगल का फूलता हुआ प्रेम प्रफुल्ल होता जाता है । यह होता ही है , श्रीश्यामाजू का अविराम दर्शन नित्यहियमणि प्यारेजू के लिये भी असह्य रहता है , जैसे मीन मधुरतम भंवर (आवर्त) में फंसी होवें । हमने निवेदन किया कि आवरण विशुद्ध होते है । फिर वही रसिले हो जाते है ।
बाहर से प्रेमी और भोगी में साम्यता होने लगती है , जैसे प्रेमी भी निहार ना पाता और भोगी भी । पर प्रेम की असमर्थता मधुता को ही पोषित करती है , आस्वादन स्थिति वहाँ बहुत है ...चिन्तन या नाम मात्र का आस्वादन पार करना आसान नहीं । स्वरूप दर्शन में स्वभाव सहयोगी होता है , स्वभाव के यशगान सँग स्वरूप दर्शन रसीला होता जाता है। स्वरूप दर्शन से ही स्वभाव हृदयंगम हो सकता है , श्रीराधावल्लभ लालजू को अनवरत निहारन से उनकी स्वभाविक कोमलता दर्शनार्थी के हिय में भरने लगती है । स्वरूप ही स्वभाव है और स्वभाव ही स्वरूप है । रसिक वाणियों में इन्हीं वैचित्रियों का रसीला गोता सहज ही सुलभ ही है । तृषित ।सो स्वरूप दर्शन में उनके निज स्वभाव को सेवार्थ छूती वाणियाँ ही इष्ट रहें । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी

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