अप्राकृत स्थिति , तृषित
कोई भी स्थिति जब तक अप्राकृत ना हो जावें वह अधुरी है ।
भले रूदन हो , या साधन हो , या कर्म ही हो ।
प्राकृत और स्वयं को देह में बद्ध मान अनुभवित सभी स्थितियाँ पूर्ण प्रकाश नही कर पाती , अपितु यह सब कृपा का अनादर है ।
कृपा हमें उनके सन्मुख कर पूर्ण होती है , तब प्रारम्भ होता है जीवन ...
वह अपना रहे है , अपना लेंगे । फिर आगे क्या होगा ??? तब जो होगा वह ही हमें होना है ...जीवन का प्रारम्भ उनके संगोत्तर में है । उनका सँग कठिन नहीं है , पर वह सँग का याज्ञिक होना कठिन है । जो सँग के उत्तर स्थिति की तैयारी कर रहा है , वह निश्चित सँग होगा । सँग तक की तैयारी तो कृपा है । कृपा का अनुभव स्वत: सँग प्रकट कर देता है । कृपा लालसा रूपी आहुति से अनुभव में आयेगी , और कोरी लालसा कृपा सँग से ही चलने का सामर्थ्य जुटा पायेगी । लालसा को संगोत्तर की तैयारी में लगा लीजिये ... सँग तो कृपा कर ही देगी । ध्यान रहे सँग उनका ही प्रकट होता है जो संगोत्तर की पात्रता रखते हो ।तृषित (बात होती है , भगवत सँग कैसे ... उस परिपेक्ष में कहा)। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
*संगोत्तर*
सखी वें कब आयेंगे ???
अर्थात् वें नही आ रहे यह माना गया है ।
सखी वें आ गये है । मुझे उनके हेतू सब सुख जुटाना है ।
बिना सूचना कोई अतिथि भी आ जाता है तो उथल-पुथल मच जाती है तो यह तो श्रीहरि की निज धरा है (हृदय) ।
वें आ गये है यह मान कर जीवनमय रहना संगोत्तर है ।
*रसिकों के जीवन में श्रीयुगल कभी ना जाने के लिये ...आ गये है*
*इस स्थिति की लालसा हो सँग के बाद । सँग को झेलने की लालसा ।*
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