व्याकुलता पी जाओ , तृषित

कुछ मानना ही है तो स्वयं को उनकी वस्तु मान लो । (श्रीयुगल की)
उन्हें परस्पर निकट निहारो अत्यंतम निकट इस भाव से उनकी निकटता की भावना को प्रबल करते करते आपको उनका प्रेम रस अनुभूत होगा । उसमें स्वयं को सखी जु की सेविका , यानी युगल की रस सहचरी ही जान । स्वयं को सेवा ही मान ।

उनकी प्रीत में सहभागिता होने पर वह प्रकट होगी , मन युगल की व्याकुलता को पीने को बावरां हो जावें कि मैं दोनों की व्याकुलता पी जाऊँ और वह परस्पर रस में समा जावें ।
फिर भाव गहराए और दर्शन गहराता रहे ...

हम उनके रस को पीना चाहते और व्याकुल रहते । हम उनकी व्याकुलता को पीने की भावना करें। परस्पर सभी विघ्न को स्वयं में समा लेने की भावना ।
इस तरह की भावना से युगल रस सामने होगा और तत्क्षण रस नही उनकी व्याकुलता और कष्ट निवारण के भाव से वहाँ स्वयं को सेविका रूप पा सकोगे ।
रस नही उनकी वेदना पी जाइये । जितनी वेदना पी सकें उतना गूढ़ मिलन उद्घाटित होगा और इस अथाह व्याकुलता के सरोवर की एक एक बूँद महाज्वलन्तम और गहनतम है अतः न व्याकुलता का पान पूरा होगा न ही गूढ़ रस से तृप्ति

रसिक रीति वाणी आदि के भाव सिद्ध है
कही न कही उसके प्रमाण मिलते है और मिलेगे , बिना प्रमाण खोजे उन वाणियों को जीवन से बाँध लेना है । कि वाणी और जीवन एक वस्तु रह जावें ।
रसिक वाणी से अपने अनुभव को जांचना है , वाणी को नही । भावुक को लगता है वाणी पठन आदि से कि यह ही तो मेरे संग ही हुआ , वास्तविक रस शाश्वत है ...रसिक कृपा से हमें उड़ती हुई सुगंध आ जाती है ...पक्के अनुभवों की सारी सुगंध जो आती है वह रसिकवाणी से है । वाणी कृपा से वह प्रकट दृश्य हो जावेगी तब अनुभव होगा अपनी निर्बलता और वाणी कृपा का दिव्य बल ।
...बस कोई लिख-कह पाता है कोई नही । रस रीति में रहकर सिद्धांत और युगल की उज्ज्वलता पर जो लिखा है वह प्रमाण है कि यह अनुभव सब संग होता ही है , कुछ कुछ भाव वैचित्रियों  संग ।
हम एक दर्शन में भी अपने अपने भाव अनुरूप जो विचित्रता पाते है , वह वैचित्री है ,  दृश्य एक है परन्तु भावार्थ सम्बंधता में कौन कहाँ खड़ा है वैसा ही दिखेगा जैसे कोई वृक्ष को नीचे से देखें , कोई उस पर चढा ही हो अथवा कोई दूर से उसे देखें ...एक ही वृक्ष को अलग अलग दृष्टि से देखा जा रहा है । रसिक रीतियाँ निकटतम है ...
सब को एक ही दर्शन दिखाई दे तो अनुभूति में जो विभिन्नता है वह वास्तविक स्वभाव की विचित्रता से है और वह विचित्रता ही सेवा में नवीन रस लाती है , सब एक से हो तो नवीनता कैसे होगी । भाव रूपी विचित्रता से ही रस युगल हेतु गहराता है ।  दृष्टि सेवागत वैचित्रि श्रीयुगल द्वारा ही दी गई है , सम्भव है किसी को दिखे ना वह वृक्ष ।।। तृषित ।। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
हियोत्सव सुनियेगा सभी भाव क्रमश: ...

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