स्वभाव लालसा , तृषित

*स्वभाव लालसा*

स्वभाव के छू जाने की लालसा रह्वे । प्राकृत जीवन में एक बार जल का गिलास छोडने से लेकर , एक समय आहार छोडने तक समस्त उपक्रम में पराभक्ति प्राप्त हो गई यह अनुभव रहता है । प्राकृत जीवन के प्रति सत्य निष्ठा का अनुभव ही अपने ही अप्राकृत जीवन का दर्शन हर लेता है ।
      श्री भगवदीय स्वरूप दिव्य है , और उनका स्वभाव भी दिव्यतम होता जा रहा है । वें ही प्रीति - प्रियतम है । उन्हीं दिव्य स्वरूप स्वभाव धारी श्रीयुगल प्राण की सेवामय वपु धारण होने हेतू निज स्वभाव का उदय होना अनिवार्य ही है । अनन्त जन्मों और योनियों में धारण किये भाव और स्वभाव हमें हमारे लगे हो परन्तु हमारा वास्तविक स्वभाव वह है जो प्रकट उनकी सेवा में है । दिव्य विहार राज्य में अनन्त परिकरी वृन्द(समूह) है , वही स्वभाव है ...प्राकृत जीवन के अनुभव को हम शून्य रख वहाँ की तनिक सी झलक जुटा सकते है परन्तु दिव्य विहार में प्राकृत जीवन का कोई तत्व नहीं जाता ...हमें नित्य प्रकट रस में अपनी सेवामय वपु का अनुभव हो जाना चाहिये , वही अनुभव सघन होवें तब वही स्वभाव प्राप्ति है , सच्चिदानंद स्वभाव है वह हमारा सच्चिदानन्द सरकार की सेवा में । इस स्वभाव का स्पर्श ही प्रकट होने को भजन या साधन कहा जाता है , स्वभाव के स्पर्श बाद का भजन रसीला होता है ...तब भजन काल में अपने स्वभाव वपु की क्रियाओं सँग श्रीयुगल का चिन्तन नित्य है । प्रारम्भ में श्री युगल के किसी एक भाव , किसी एक सेवा , किसी एक श्रृंगार में प्राणों का अटक जाना आवश्यक है ...वही सेवा-श्रृंगार कृपा कर स्वभाव स्थिति तक लें जाते है । पथ पर स्वभाव नित्य खेल के फूलने के सँग फूल ही रहा है , अर्थात् यहाँ स्वभाव कभी निश्चित आकृति पर अटकता नही है । वह और और... और दिव्य होता ही जाता है । इस स्वभाव प्राप्ति को जो कि केवल मात्र कृपासिद्ध स्थिति है , भक्ति कहा गया है । प्राकृत आवरण ही भंग ना हो तब तक स्वभाव सिद्ध ना होगा ।
जीव का दर्शन प्राकृत है सो वह दिव्यतम प्रकट रसिकों के जीवन में भी बाह्य लीला को ही चरित्र मान उतना ही चिन्तन कर बाहर बने रहते है ...जिसे अपना बाह्य आवरण भा रहा हो ...वह कैसे किन्हीं दिव्य रसिक के स्वभाव स्वरूप का ही अनुभव रख चिन्तन करेगा ...
अपना बाह्य जीवन का स्वाद भीतर के जीवन में लग जाने की लालसा से ही स्वभाव सिद्ध हो सकता है । और इसी लालसा में अन्य सिद्ध या साधकों की स्वभाविक झलक का स्पर्श रह सकता है । भक्ति-प्रेम का अर्थ केवल प्राकृत जीवन का भंग हो कर जीवनान्त मिलन भर नहीं है । भक्ति-प्रेम का अर्थ स्वभाव के जीवन में बाह्य जीवन का निवेश करना है , इस स्थिति में बाह्य जीवन की स्थिति का नाम भजन है । हमारी उनके सँग (प्यारीप्यारे) निश्चित उपस्थिति है , अपनी उसी उपस्थिति को छूकर ही हम उस स्वभाव रूप उनकी जो सेवा करेंगे वह स्थिति ही भक्ति है । जिसमें अपने अप्राकृत स्वरूप का स्वभाव जीवनमय है और वह जीवन केवल सेवाओं से भरा है । श्रीगुरुकृपा के अतिरिक्त केवल स्वयं की ही लालसा यह स्थिति जुटा सकती है , शेष प्रपंच में कोई उस स्वभाव स्थिति को अनुभव नही कर सकता है , वहाँ बाह्य लीला द्वारा झरित कल्याण वर्षण ही मुग्ध किये देगा । भीतर के उफान को देखने हेतू ...अपने भी भीतर उपस्थिति की इच्छा होवें । बाह्य प्राकृत जीवन (प्रपंच) स्वभाव के स्पर्श उपरान्त अत्यन्त मनमोहक स्वादों से भरा होगा , यहाँ सभी कुछ होगा ...सम्भव हो कि यहाँ प्रत्येक रूप श्रीप्रियतम ही खडे होवें , परन्तु नित्य रस में वह स्वभाव उपस्थिति ही सत्य है यह बात हिय पर छ्पी रह्वे । कोई स्थिति में चित्त स्वयं को उनकी सँग रसमया सहचरी (सेवा-परिकरी) से शेष अन्य कुछ ना माने । बाह्य जीवन की स्वभाव से विपरित स्थितियों में मौन स्वीकृति होवें , परन्तु जीवन के प्रत्येक क्षण में निजता का अनुभव उसी स्थिति में अटक जावें , एक बार स्वभाव के स्पर्श उपरान्त साधन बाहर टिके रहने का रहता है ...क्योंकि स्वभाव की स्थिति भंग नही होती है , वह तो नित्य तत्व ही है ।(नित्य रसिले पियप्यारी की रसिली सेवाकिंकरी नित्य ही रहती है)
स्वभाव ...सम्पुर्ण जीवनों की यात्रा अनन्त भावों का विलास ही है । परन्तु बाह्य भाव मेरे नही है , वह तो एक पात्र है अभिनय हेतू मिला । मैं कौन हूँ ...श्रीनित्य रसिक-रसिली दम्पति की सुख-सेवा श्रृंगार उपचार सामग्री मात्र । परन्तु वर्तमान में हम जीवन भर साधनमय होकर भी भीतर की ओर उन्मुख नहीं हो पाते है , प्राकृत ही स्थिति चित्त पर बैठी रहती है । कारण है की बाह्य जीवन द्वारा हमें भोगों में रूचि मिल गई है और किसी भी भोग प्राप्ति हेतू जो चल रहा है , वह बाहर ही है ...भले वह भोग दिव्य होवें जैसे भगवत-दर्शन ।  भीतर की स्वभाव स्थितियों में जो भोग स्थिति वह पृथक नहीं है , सहचरी  वह तत्व है जो श्रीयुगल के साहचर्य में है ही । नित्य सँग ही सहचरी है पर वह सँग भोग नही है , उसमें अपना पोषण करने हेतू भर सँग लोभ नही है । वह युगल सेवार्थ-श्रृंगारार्थ-क्रीड़ार्थ रमणार्थ सँग है , जीव नित्य बिहारी तत्व नही है ...वह स्वभावत: नित्यबिहारिणी बिहारी की रसभरी अभिन्न सेवा है । अपनी ओर से बनाया यह द्वितीय भोग जो हम प्राप्त करने चलते है जैसे ...मैं भी आपकी चरण तली की श्रृंगार का स्पर्श करुँ (नित्य स्वभाव ही स्वयं श्रृंगार है और श्रृंगार सुख सेवा की वृद्धि हेतू ग्राह्य होता है अपितु श्रृंगार यहाँ प्रकट श्रृंगार का संयोग पाता है परन्तु उसमें भावना सुख लेना ना होकर सुख सेवा होना होता है) तो ...कह रहे थे कि वह द्वितीय सुख भोग हेतू मानी हुई स्थिति से ही अपनी ही स्वभाविक स्थिति स्पर्श ना होती है ...वही वाँछा की पृथकता स्वभाव के स्पर्श का बाधक है और यहाँ तो सरस यात्रा स्वभाव के स्पर्श बाद ही प्रारम्भ हो रही है ।
स्वभाव स्पर्श बाद रूचि मात्र स्वभाविक वृतियों में होती है जो कि रसिक वाणियोँ में ही है ।
निज स्वभाव प्राप्ति की लालसा ही भक्ति का स्पर्श है , हृदय रूपी कुँज की कन्दरा में जिस क्षण श्रीप्रिया प्रकट हो जाती है , प्राकृत जगत का भोग विलास भीतर छुट चुका होता है ।
नामरस की लालसा भी प्राकृत स्वाद भंग कर नित्य विहार के युगल स्वाद की सेवा कर देता है , रस की एक बिन्दु के लोभी जीव को श्रीनाम स्वयं रस दम्पति की सेवा स्थित कर देता है , वही स्थिति स्वभाव है । जैसी सेवा है वैसा ही स्वभाव-स्वरूप है ।
श्रीयुगल से अभिन्न प्रीति और श्रीयुगल सुख की अभिन्नता श्रीयुगल की सेवा भरी भावना में स्थित कर देती है परन्तु इस स्थिति में सेवा ही दृश्य होती है अपना कोई दर्शन नही रहता है , प्राणपियप्यारी की वाँछा ही श्रृंगार हो रही होती है ना कि पृथक कोई श्रृंगार-सुख रूचि रहती है ।
समस्त जीवन की समस्त साधनाओं को नित्य रस में प्रकट सेवा हो जाने की लालसा से ही ग्राह्य रखना है ।
स्वभाव प्राप्ति की लालसा भगवत दर्शन लालसा से भी गहन है , नित्य प्रकट प्रेम में सेवा हो जाना ही भक्ति है किन्हीं वाँछाओं की सिद्धि हेतू दर्शन उनकी करुणा है जो कि दानव-असुर भी प्राप्त कर लेते है ...सेवा होने हेतू जीवन की पृथकता को भस्म करना ही होता है ।
समस्त साधन या व्यवहार उनकी नित्य सेवा होने हेतू है तो स्मृति रह्वें कि बाह्य जीवन में नमस्कार-महिमा आदि प्राप्त करने की इच्छा ना हो ...हमें नमस्कार मुद्रा में सेवामयी उनकी कृपा वपु होना है ना कि लोक-लोकांतरों में सिद्ध-प्रसिद्ध ।
नमस्कार पाने की इच्छा ही होती है कि सन्मुख नमस्कार मिलने लगता है , प्राकृत आवरण स्वयं को कितना ही सिद्ध करे ...लक्ष्य नित्य अप्राकृत दिव्य विहार लीला में सेवामय उपस्थिति ही होवें ।
...और हियोत्सव के सभी भाव सुनिये । तृषित ।
भाव राज्य में भाव ही महाभाविनी स्वामिनी जू की सेवा वपु है , सो सेवा मय अपने भाव की तलाश हो ...अनन्त भावों द्वारा श्रीप्रियाजू की सेवा हो रही है , सभी भाव रसिली जू द्वारा प्रकट ही है ...सभी स्वभाव परस्पर नवीन है अर्थात स्वभाव भावों की विचित्रता का ही नाम है जो कि सेवार्थ मधुर मुद्राओं से प्रतिक्षण प्रकट हो रहे है उन्हीं मुद्राओं के वांछित श्रृंगार स्वरूप होने हेतू । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । स्वभाव प्राप्ति की लालसा हीदुर्लभ है और स्वभाव प्राप्त हो जाना मात्र कृपा है और कृपा पृथकता या अहमता की निवृति ही सिद्ध करती है ...कृपा पथ के तमस का निवारण है , वह कभी पृथकता नही प्रकट करती और कृपा ...सदा ही किये गये श्रम की अपेक्षा दिव्यतम उपहार है ...कृपा जो देती है उसे प्राप्त करने की इच्छा किसी जीव में कभी प्रकट ही नही होती है ।

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