जगत यात्रा , तृषित
*जगत यात्रा*
वर्तमान बाह्यजगत में चहूँ ओर भौतिकता तांडव कर रही है । हम सभी पर बहुत पर्ते (आवरण)चढ गई है । सभी आवरणों से मुक्त स्थिति पर अध्यात्म है , और मुक्त स्थिति उपरान्त अपना आश्रय-विषय एक ही प्राणवल्लभ सरकार में पा लेना भक्ति है , और उन्हीं प्राण वल्लभ सरकार का ही सेवा श्रृंगार रूपी आवरण रह जाना , आवरणों की सिद्धि है यूँ ...प्रकट सेवा रूप में ।
आइये पुन: देखें अपने बाह्य आवरण , यह आवरण का विषय बडा पेचिदा है ...बहुत उलझे हुये है यह आवरण । हम सभी बाह्य आवरणों से छुट कर देख पाते है अपने आवरण , और इन्हें सुलझाए बिना भगवदीय सम्बन्ध नही हो पाता । भीड बन कर देवालयों के बाहर या यात्रा नाम पर जो समूह है , वह क्यों भगवदीय सम्बन्ध नही लेकर लौटते । क्योंकि यहाँ यह आवरण में भरे ही पहुँचते है और लौटते है । मनुष्यता की प्राप्ति हेतू अनिवार्य है पशुता (wildity) भंग हो । नष्ट नहीं होती यह चीजे ...भंग होती है । भंग होने हेतू लालसा होवें । लालसा हमारी भौतिकी में अन्य पशुओं के सँग भंग हो रही है , उसी भंग होती लालसा से लालसा की जावें पशुता के भंग होने की तब पशुता भंग हो सकेगी । बाह्य स्वतंत्रता की ललक उपरान्त ही वास्तविक- आन्तरिक-परतन्त्रता की आवश्यकता होगी । जीव परतन्त्र स्थिति ही है परन्तु परतन्त्रता होवें जो स्वयं स्वतंत्र हो उनकी । परस्पर जीव स्वयं परतन्त्र होकर अन्य को अपने में परतन्त्र देखना चाहता है । परस्पर साहचर्य हो सकता है , परतन्त्रता नही ।
समाज के विज्ञान से सर्वथा पृथक मेरा निवास बडा ही सघन और अद्भूत होते हुये यह सब बात मेरे द्वारा होती है जब अपने निवास का अनादर और भौतिकता का आदर जीव की दृष्टि में होने से , मुझे द्वंद्वात्मक जगत की इस विचित्रता से बाहर आना होता है ...यहाँ अपनी अनुपस्थिति होने पर भी उपस्थिति का कारण यही मिलता है कि जीव की बन्धन में होती रूचि का दर्शन करुँ जिसके अनुरूप चेतना प्रहार शक्ति द्वारा इस अविद्या पाश को भंग करें । इस स्थिति में अविद्या का अनुभव भी आवश्यक है सो बाह्य की विचित्र थका देने वाली लीलाएँ.. भीतर की विश्राम को ही पुष्ट करती है ।
समाज का भागीदार और हिस्सेदार होते हुये समाज का सुधार सम्भव नही है । दूध को पकाने हेतू या कोई पकवान बनाने हेतू उस दूध से बाहर उपस्थिति चाहिये , आज चहुं ओर भोगवादिता की माँग है ...परन्तु यह माँग प्रकट कोई नही करता । सभी और बनवाटी सौंदर्य और सात्विकी-दिव्यताओं के आवरण चढा कर हम सभी स्वयं के पाखण्ड द्वारा अविद्या (भोगजगत) को ही सजाने में मस्त है । मैं जो लिख रहा हूँ , इसके अनुभव के लिये आपको एक बार भेड के समूह से बाहर आकर देखना होगा ..तो समझ आयेगा की जगत में जो स्वार्थ का विलास चल रहा है वह स्वार्थ भी वास्तविक नहीं है ।
भेड होकर भेड पालक का स्वार्थ ना समझ बनेगा , बाहर से देखने पर ही पता चलता है कि भेड का पालक और संहारक एक ही है ।
जिस तात्पर्य से बात हो रही है वह है कि प्रपंच का ज्ञान उससे मुक्त होने हेतू है ना कि उसमें और उलझने हेतू । मुखिया की वैचारिक-शुद्धिता से ग्राम में शुद्ध वातावरण हो सकता है ।
भौतिकी स्वार्थ सँग अध्यात्म सूत्र नहीं खुलते है । उसके हेतू स्वतंत्रता चाहिये , हृदय और जीवन की स्वतंत्रता । और भक्ति हेतू श्रीप्रियतम प्रभू में ही प्रेम भरी दास्यता चाहिये (जीव का बन्धन मिटेगा नहीं उसे दिव्य करना ही उसकी सम्पुर्णता है) नित्य दास को नित्य ही स्वामी स्थिति में भरे प्यारे प्रभू चाहिये ।
आज हृदय में प्रपंच के भोग इष्ट है और अभिनय है पावन भक्ति पथ का , अब हमें किन्हीं के भीतर क्या है इसे अनुभव रखना ही होगा क्योंकि दुर्लभ जीवन को प्रपंच में नष्ट करते हुये हम थक कर इसे कल्याण पथ पर लावें तो वहाँ इष्ट क्या है , यह हमें अनुभव होगा कि दिखाया जा रहा वह ना देखकर जो है उसी का दर्शन किया जावें । तोते की बात का जवाब तोता ही देता है , वह शब्द अन्य पक्षी भी सुनते होंगे परन्तु वह भाषा मात्र तोता समझता है । वैसे ही प्रेमी , नित्य प्रियतम को ही अनुभव करना चाहता है और यही लालसा उसके वांछित स्वरूप की उपस्थिति उसे दर्शा सकती है । और यहीं लालसा भरा अनुभव हृदय में प्रियतम की नित्य उपस्थिति में , उनके सँग लालसा की अनुपस्थिति दर्शा सकता है । इस हेतू हृदय के अभीष्ट मात्र श्रीप्यारे हो , सम्पुर्णता उन्हें निहारने को आतुर हो । इस आतुरता से भरने पर पाखण्ड और अविद्या का खेल शेष नही रहता क्योंकि नित्य खेल ही दृश्य रहें यह लालसा भरी होती है जिसके परिणाम से नित्य रस लालसा जहाँ नहीं है ...वहाँ निजता की अनुपस्थिति स्पष्ट दृश्य हो सकती है ।
वर्तमान में जिनका आधार पाखण्ड है , वह धर्म द्वारा विपरित वाँछाओं के कारण अविद्या के जाल ही गूँथ रहे होते है । अपना आधार स्थाई करने पर ही वैसी ही स्थिति जीवन होगी । आज पाखण्ड अधिक है क्योंकि उसकी ही माँग है , आज वेद या धर्म या प्रेम की ही रीतियाँ हमें सुहाती नहीं है और जितने भी शार्टकट हम चुनते है वह क्या है ???
आधार-विषय का ही चुनाव हमें करना है , फिर उसी का सृजन जीवन करेगा । अगर किन्हीं दृश्य दिव्य आत्मा के इर्द-गिर्द भी बहुत ही विशाल समूहता में अविद्या में भरे जीव है तो वहाँ भी केवल विशुद्ध सत्व(भगवत परिकर) दृश्य होवें तब वहाँ वह जीव सन्मुख होगा ही नही , जो इस जीवन में अविद्या को ना छोड़ना चाहता हूँ ।
रचनाकारों को देखिये , वह रचना को जीवन्त करने हेतू कैसा दर्शन भीतर भर कर उसे आत्मसात करते है । हमारे एक रूप ने ही अनन्त यात्रा की है सो हमारे चित्त में सभी वृतियाँ भरी हुई है , कभी बाघ भी रहे होंगे तो कभी हिरण भी । इन्हीं अनन्त आवरणों से छुट कर हम निज स्वभाव को छू सकते है । भृमर पुष्प सँग प्रीत में फूल होने को छटपटाता है , वह भृमर नकली फूल से सन्तोष नही कर सकता वैसे ही प्रेम-लालसा ही वैसा ही जीवन सृजन कर सकती है । रचनाकार किसी भी कृति के सृजन हेतू प्राणों को आहुत कर चिन्तन करता है वही चिन्तन ही है कि वह वस्तु अद्भूत हो उठती है और आकर्षित करती है , कठोर धातु भी वाद्य-सँग रागात्मक हो जाते है । सँग की महत्ता इसलिये गाई गई है कि लालसा दिव्य होती जावें । जलती हुई लकडी के सँग से ताप मिलता है , जो लकडी जल ना रही हो अथवा राख हो गई हो वहाँ सँग करना अर्थात ताप की आवश्यकता नही है ।
यह सब बात कहना इसलिये महत्व रखता है कि जगत् प्राकृत भोगों की लालसाओं से लिप्त है सो निज धर्म (हरिदासता) से छुट रहा है , भोगों हेतू जो लालसा है वही जीव को पाखण्ड तक ठहरा देती है । भोगों के कोहरे भरी रात्रि में राख हो चुकी लकडी का सँग पशु भी नही करता । परन्तु वर्तमान जगत , भोगविलासों में संतोषी है , राख हो चुकी लकडी से आत्म कल्याण रूपी तृषा की लपटें नही लपकती । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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