विलास चोरी , तृषित
*विलास चोरी*
अमृतपान कृत्य नहीं है । और प्रीति के ललित कृत्यों में जो श्रृंगार विलास रहता वह भावरस भरी चतुरता होती । जिस भाँति लोक धन के चोर लौकिक धनी का सँग चुपके से करते और समय जुटाते धनार्जन का वैसे ही रस और भाव ग्राही भावुक और रसिक सँग से चुरा पाते कुछ भाव बिन्दु । यह ही लीला भीतर हृदयों के श्रृंगार कौतुकों का विलास नृत्य है । विलास एक हृदय में घटा भोग-उत्स भर नहीं है , वह तो घटने से पूर्व ही नृत्यमय और श्रृंगारमय है सो ही वह विलास है । जैसे चम्पा का पौधा लगाना भर विलास नही , उस पर पुष्प भी हो और खग - तितली - भृमर आदि भी हो यह उसका विलासोत्सव है । उस वल्लरी के रस-रंग कौन कौन खेल रहा वह सब सँग हो यह विलास है । अर्थात विलास हृदय से हृदय में उछलते भाव है जिन्हें बाह्य स्थिति कोई देखेगी तो कहेगी चोरी हुई है मेरे हृदय की सेवा या श्रृंगार की । रसिक प्रियतम को लेन-देन से प्रिय चोरी है और यह चोरी उनमें सहज विलास की एक कौतुकी अभ्यास है । अभ्यास सफल होने पर चोर की चोरी पकड़ नहीं आती जैसे तंत्र में कोई तांत्रिक किसी वस्तु की दशा - दिशा बदल दे तो उसे चोर नहीं कहा जाता क्योंकि वह चोरी पकड़ने में नहीं आती । हृदय की उछल के कोई कौतुक किसी इन्द्रिय को स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जावें वह ही चोरी है । परन्तु श्रीप्रियतम का अभ्यास लीलात्मक है अर्थात अति सहज है जैसे किसी शिशु के कोई असफल होते कौतुक होते । जब किसी कौतुक में श्रृंगार रस पूर्ण माधुर्य सँग मिलकर प्रकट होता है तब वह चोरी कथ्य नहीं हो सकता । शिशु जब स्वयं कुछ आहार पाना चाहता है तो शरीर या मुख अथवा वस्त्रों पर गिरा लेता है , यह आहार का बाहर गिरना चोरी दिखेगा और सीधे सहजता से भीतर ले लेना विलास । जब वही शिशु आहार को पाने में पारंगत हो जाता है तब वह वस्त्र आदि पर सहज नहीं गिराता है , यहाँ श्यामसुंदर में चोरी का दिखना विलास की शिशुता है और विलास पूर्ण होता है नित्य किशोर युगल माधुरी में । उन रसिली निकुँज और गहन अति गहन निभृत स्थितियों में इतना गहन विलास होता है कि कोई पारखी नयन ही चोरी या श्रृंगारों की पीक आदि देख सकते है । शेष मण्डल प्रियाप्रियतम के गहन विलास को विवर्त दर्शन कर उन्हें सुख देता है कृष्णप्रिया श्रीश्यामाजू किशोरी श्रृंगार सज्जित किशोर अनुभव आ सकती है । प्रारम्भ में जिन नैनों ने अपने दृश्य अभाव से विलास में चोरी को देखा है वहीं नयन तरसते है विलासात्मक श्रृंगारों के कौतुकों को देखने को और यह चोरी जिन नयनों में बनी रहती है वह निजता को निकट से छू भी सकते है । चोरी ने विलास को चुराया है तो विलास में चोरी को चुराने वाले नैन हो , वह श्रृंगारात्मक नित्य नवीन विलसन ही केलि है । श्रीप्रियतम के जो कौतुक श्रीप्रिया सँग होते है वह चोरी कथ्य नहीं होते क्योंकि उनमें सन्मुख अति विशाल रस-मधुता की सुधा के विलसने से वह केवल माधुर्य लीला भर प्रकट है । चोरी के लिये दो भिन्न श्रृंगार या भिन्न रस भाव होते है । नित्य अनन्त नव मधुता हृदय में होने पर भी वह भीतर से भीतर दोनों में अनन्य रहती है । प्रियतम की चोरी का अनुभव अपनी भावात्मक लघुता है वरण वह मधुता बढ़ने पर विलास अनुभव रहेगा । विलास अर्थात जीवन का सामूहिक भावरस भरा मधु-नृत्य ...केवल दूध नहीं अन्य सुगन्धित-मधुरित-पुष्टिप्रद उपचारों से श्रृंगारित मिष्ठान्न या खीर विलास है जिसमें भिन्न मधुताएँ एक श्रृंगार में भिन्न मधुताओं का एक जीवन होकर आस्वादनीय हो । प्रारम्भिक स्थिति के लिये यह ही अनुभव रह्वे कि लेन-देन नही होगी इस पथ पर , जो छिपाया जाएगा वही चोरी होगा । फिर जब वह चोरी हो यह जीवन होगा तब वह कुछ ऐसा अन्य रस देख लेगें जो हृदय छिपा रहा हो उनसे , उन्हें वह लेना जो हमें उन्हें नहीं देना यही विलास चोरी दृश्य है परन्तु जब यह सहज होता है तब भिन्न भिन्न वृक्षों की भिन्न शाखाओं पर बैठे पक्षी एक सँग उड़ते है जैसे कोई एक नृत्य उन्होंने चुराया हो भीतर । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । यह रस गहन होता जाता है , नयनों में शहद भर भर कर निहारवे की बात है यह पथ ।
खगावली हिय माहिं ज्यों तालिनी रागिनी एक हूँ गूँजे
त्यों अलि चौरित हिय फूलन सुमधु तरङ्ग सुं विलसे
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